bhakti ganga
अयि मानस-कमल-विहारिणी!
हंस-वाहिनी! माँ सरस्वती! वीणा-पुस्तक-धारिणी!
शून्य अजान सिन्धु के तट पर
मानव-शिशु रोता था कातर
उतरी ज्योति सत्य, शिव, सुन्दर
तू भय-शोक-निवारिणी
देख प्रभामय तेरी मुख-छवि
नाच उठे भू, गगन, चन्द्र, रवि
चिति की चिति तू कवियों की कवि
अमित रूप विस्तारिणी
तेरे मधुर स्वरों से मोहित
काल अशेष शेष-सा नर्तित
आदि-शक्ति तू अणु-अणु में स्थित
जन-जन-मंगलकारिणी
अयि मानस-कमल-विहारिणी!
हंस-वाहिनी! माँ सरस्वती! वीणा-पुस्तक-धारिणी!