bhakti ganga
मैंने दर्पण तोड़ दिया है
वह बाहर का बनना और सँवरना छोड़ दिया है
भला-बुरा जो भी जैसा हूँ
अब कुल वैसे का वैसा हूँ
कैसे बतलाऊँ, कैसा हूँ!
मैंने दीपक की लौ को सूरज से जोड़ लिया है
मन की आतुरता के मारे
कहाँ नहीं थे हाथ पसारे!
देव रहे झूठे वे सारे
नित जिनके दर पर जा-जाकर माथा फोड़ लिया है
सुख की मृग-तृष्णा भर ही थी
पूर्णकामता अन्दर ही थी
मंजिल तो पाँवों पर ही थी
जब जाना यह, अपना मुँह भीतर को मोड़ लिया है
मैंने दर्पण तोड़ दिया है
वह बाहर का बनना और सँवरना छोड़ दिया है