bhakti ganga

इतने ठाठ व्यर्थ क्यों बाँधे
व्यर्थ फिरे जंगल-जंगल क्यों हम, फरसा ले काँधे!

पल में रज के महल ढह गये
कोष्ठ भरे के भरे रह गये
तट क्या बँधता, हमीं बह गये

क्या पूरे, क्या आधे!

आदि उसी की, अंत उसीका
पतझड़ और वसंत उसीका
क्यों पथ धरे अनंत उसीका

रहे न चुप्पी साधे!

इतने ठाठ व्यर्थ क्यों बाँधे
व्यर्थ फिरे जंगल-जंगल क्यों हम, फरसा ले काँधे!