bhakti ganga
सब कुछ तो हो चुका समर्पित प्रथम मिलन की रात में
शेष रहा अब क्या देने को, लाऊँ जिसको प्रात में!
शुष्क अधर-कलिका रसभीनी
उड़ी कपोलों की रंगीनी
किसने वह मुख-सुषमा छीनी
देख-देखकर चादर झीनी
सिहरन होती गात में
अमर प्रेम में क्यों भ्रम-संशय!
झूठे थे वे वचन सुधामय!
कहाँ छिपे हो अब ओ निर्दय!
मेरे जीवन का कुल संचय
चुरा बात-की-बात में
सब कुछ तो हो चुका समर्पित प्रथम मिलन की रात में
शेष रहा अब क्या देने को, लाऊँ जिसको प्रात में!