bhakti ganga
क्यों तुम दूर-दूर हो छाये?
वे सब तो मुझमें भी हैं तुम जिनसे लड़ते आये
खड़े हिरण्यकशिपु अविचल-से
रावण, कुम्भकर्ण दल-बल से
कितने कंस छिपे हैं छल से
अपनी घात लगाये
दंभ, रोष, जड़ता, निष्ठुरता
लोभ, मोह की तीव्र प्रचुरता
मेरी तामस-वृत्ति, असुरता
क्या तुम देख न पाये?
भूल गए क्या अपने प्रण को?
या अमार्ज्य समझा इस जन को
अब मेरे शापित जीवन को
कौन विमुक्ति दिलाये?
क्यों तुम दूर-दूर हो छाये?
वे सब तो मुझमें भी हैं तुम जिनसे लड़ते आये