bhakti ganga
करुणामय! तेरी करुणा का भार मधुर झेलूँ कैसे!
चार हाथ से तू देता, मैं दो हाथों से लूँ कैसे!
तेरी करुणा बरस रही हैं बन कर ऊषा का आलोक
जिससे मुखरित होकर हँसते भू-नभ,दिशि-दिशि, तारालोक
गंगा की जिस धवल धार को गिरिमालायें सकीं न रोक
उसे शीश पर धर ले कैसे यह नन्ही दुर्वा की नोंक!
तेरी इस विराट वीणा के तारों से खेलूँ कैसे!
करुणामय! तेरी करुणा का भार मधुर झेलूँ कैसे!
चार हाथ से तू देता, मैं दो हाथों से लूँ कैसे!