bhakti ganga
कैसे आऊँ द्वार तुम्हारे?
जब तुमने रख दिये खिलौने पथ पर इतने सारे!
नए वसन का हो आश्वासन
पर न खेलने से भरता मन
लुभा रहे हैं शिशु को क्षण-क्षण
साथी प्यारे-प्यारे
यद्यपि बीच-बीच में उठकर
छोड़ रहे हैं वे क्रीड़ाघर
फिर भी अजर, अमर-सा इस पर
मैं हूँ सुध-बुध हारे
देखोगे जब नाथ पलटके
लोचन तभी खुलेंगे घट के
उस दिन मन कितना भी अटके
आऊँ बिना पुकारे
कैसे आऊँ द्वार तुम्हारे?
जब तुमने रख दिये खिलौने पथ पर इतने सारे!