bhakti ganga

कैसे रूप तुम्हारा देखूँ?
इन चिर-चंचल आवर्तों में,

कैसे अचल सहारा देखूँ!

देखूँ नाव कि देखूँ डाँड़े
जल या जल की धारा देखूँ!
तुम्हीं बता दो इस हलचल में
कैसे पार किनारा देखूँ!

भू के नर्तित अणु-अणु देखूँ
नभ के रवि-शशि-तारा देखूँ!
पर कैसे इनमें प्रतिपल वह
आनन प्यारा-प्यारा देखूँ

क्या होगा यदि भूमंडल भी
मैं सारा का सारा देखूँ!
दर्शन तो तब है जब तुमको
इन नयनों के द्वारा देखूँ!

कैसे रूप तुम्हारा देखूँ?
इन चिर-चंचल आवर्तों में,

कैसे अचल सहारा देखूँ!