bhakti ganga
चाह यह नहीं पूर्ण निष्कृति दो
सब को कहूँ, ‘ तुम्हारा हूँ मैं’, बस इसकी अनुमति दो
जब घिर आये संध्यावेला
मैं गाता ही रहूँ अकेला
धीरे से दर्पण आगे ला
करा शेष की स्मृति दो
पल न कालगति हो वह भारी
सुनूँ निरंतर तान तुम्हारी
मिटा लोकचिंतायें सारी
मन में बसा विरति दो
छूटे पर न प्रेम का नाता
देखूँ, जग मुझसे क्या पाता
फिर-फिर यहाँ भेजकर दाता!
निज चरणों में रति दो
चाह यह नहीं पूर्ण निष्कृति दो
सब को कहूँ, ‘ तुम्हारा हूँ मैं’, बस इसकी अनुमति दो