bhakti ganga

जब तक तेरे निकट न आऊँ
तब तक कैसे अपने आकुल मन को धैर्य बँधाऊँ

तन मिट्टी का, मन मिट्टी का, मैं मिट्टी का वासी
इस मिट्टी के पार बसा है जो चेतन अविनाशी
कैसे शांति मिले जब तक मैं उसकी झलक न पाऊँ

तनिक छुआ कर लौ दीपक की, तूने तम में छोड़ा
खेल-खिलौने देकर कर में, बालक से मुँह मोड़ा
टूट रहे इन पुतलों से मैं कब तक जी बहलाऊँ

जब तक यह विश्वास न हो मैं तेरा अंश अमर हूँ
चिन्मय, चिर- आनंदरूप, इस जड़ता से ऊपर हूँ
तब तक आती पगध्वनि सुनकर कैसे सिहर न जाऊँ

जब तक तेरे निकट न आऊँ
तब तक कैसे अपने आकुल मन को धैर्य बँधाऊँ