bhakti ganga

तुझको पथ कैसे मिल पाये
जब तक तू इस रंगमहल के बाहर निकल न जाये!

फिर-फिर चक्कर मार रहा है
खोल द्वार पर द्वार रहा है
पर जो मन के पार रहा है

हाथ किस तरह आये!

निकल सके हैं जो इस घर से
लाख पुकार रहे बाहर से
किन्तु न कृपा-वारि यदि बरसे

भ्रम से कौन छुड़ाये!

तप्त लौह पर जैसे जलकण
शब्दों से कटता न मोह घन
बेड़ी क्या बन सकती भूषण

कंचन से मढ़वाये!

तुझको पथ कैसे मिल पाये
जब तक तू इस रंगमहल के बाहर निकल न जाये!