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(एक बगीचे में शिरीष खड़ा है)
शिरीष – नहीं, अबं जीकर क्याह होगा? लेकिन अपने हाथ से मरने में भी डर लगता है। इससे तो रात में वह डाइन ही मार डालती तो अच्छा था। ओह शारदा! मैं कितने अरमान लेकर तेरे पास आया था और तूने मुझे कितनी निराशा दी! ठीक हीं कहा है, ‘स्त्रियः चरित्र पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानति कुतो मनुष्य:
(सुरेश का प्रवेश)
सुरेश – ओह, तुम्हारी खोज में कहाँ-कहाँ मुझे परेशान होना पड़ा है। इतना चक्कर लगाकर तो मैं एक लाख का बिजनेस पा लेता।
शिरीष – तुम! दूसरे की इज्जत लूटनेवाले, शरीफ गुन्डे ! शर्म नहीं आती तुम्हें! क्या प्रेम करने को संसार की और स्त्रियाँ मर गयी थीं जो तुमने मेरे ही घर पर डाका डाला!
सुरेश – ओह, ज्वालामुखी का वेग बंद करो । सारा शहर भस्म हो जायगा।
शिरीष – शहर भस्म हो जाय, धरती ध्वस्त हो, आसमान गिर पड़े। आज मेरे हृदय में जो ज्वाला सुलग रही है उसके आगे यह सब कुछ नहीं है। तुमने मेरे विश्वास को बेघर कर दिया, मेरी श्रद्धा की साड़ी खींच ली। तुम मनुष्य के रूप में भेड़िये हो। मेरी आँखों के आगे से हट जाओ, नहीं तो, मैं तो मर ही रहा हूँ तुम्हें भी मार डालूँगा।
सुरेश – अरे भाई, बात तो सुन लो।
शिरीष – सुन लिया और सब देख लिया, अब मुझे और कुछ नहीं सुनना है। कल तुम शारदा के साथ प्रेम-लीला नहीं कर रहे थे? उसकी आँखों के डोरे तुम्हारी आँखों में नहीं उलझ रहे थे? धूर्त! मक्कार!
(छुरा निकालकर और आँख मूँदकर)
भगवान! मैंने जानते, अनजानते जो भी पाप किया हों उन्हें क्षमा कर देना।
(छुरा मारना चाहता है, सुरेश छुरा छीन लेता है ।)
सुरेश – (जोर से) शिरीष!
(शिरीष झगड़कर छुरा छीनना चाहता है)
शिरीष – मुझे मरने दो। तुमने मेरा जीवन ले लिया, लेकिन मेरी मौत को तुम मुझसे नहीं छीन सकते।
(छीना-झपटी। सुरेश छुरा दूर फेंक देता है और एक तमाचा मारता है ।)
शिरीष – तुमने मुझे मारा!
सुरेश – शिरीष, होश में आओ। ईश्वर जानता है जो मैंने शारदा को एक क्षण के लिए भी पाप की दृष्टि से देखा हो। वह गंगाजल-सी पवित्र ओर वेदमंत्र के समान निर्दोष है।
सुरेश – और वह जो तुमसे प्रेम-प्रदर्शन कर रही थी, सो?
शिरीष – वह क्या करती! वह समझती थी, मैं ही उसका पति हूँ। हम लोग भूल से एक दूसरे के स्थान पर चले गये। परिणाम यह हुआ कि तुम्हें इन्स्योरेंस-एजेन्ट समझ लिया गया और मुझे दामाद।
सुरेश – ओह! यह कैसी भयानक भूल हुई। लेकिन-
शिरीष – लेकिन वेकिन कुछ नहीं, मैंने शारदा को प्रारम्भ से ही बहन के समान समझा है। जब तुमसे भेंट हुई, उस समय तक मुझे कुछ-कुछ स्थिति का पता लग गया था, पर बताने का अवसर ही नहीं मिला। फिर तुमसे कुछ हँसी करने की भी इच्छा हो गयी।
सुरेश – ऐसी भी कहीं हँसी होती है!

(सहसा शारदा और दीवानजी का प्रवेश |)
शारदा- (शिरीष के पैरों पर गिरकर) प्राणनाथ! मुझे क्षमा करें। इस दासी से भूल हुई। परन्तु मैं शपथ खाकर करती हूँ कि इसमें जान-बूझकर मेरा कोई दोष नहीं। मैं अब भी तन-मन से पवित्र हूँ।
सुरेश – यदि अब भी तुम्हें विश्वास न हो तो अग्नि-परीक्षा का प्रबन्ध करूँ?
दीवान – आग जलाकर उसमें मुझे झोंक दीजिएं, सरकार! पर सती सीता-सी पवित्र हमारी बिटिया पर दोष न लगाइए। यह सब इस बूढ़े की भूल और आतुरता से हुआ। सरकार! जो सजा देनी ही मुझे ही दें।
शिरीष – हो सकता है, आप लोगों की बात ठीक हो, पर अब समय बीत गया। अनजाने में खाया हुआ जहर भी जहर ही होता है। इन्हें जानते में पति माना गया या अनजानते में, बात एक ही है।
शारदा – ऐसा मत कहिए, मैं भगवान की सौगंध खाकर कहती हूँ कि मैं पूर्ण पवित्र हूँ।
शिरीष – हो सकता है, फिर भी, फिर भी, तुम एक शव से बात कर रही हो। मैं थोड़ी देर पूर्व अफीम की डली खा चुका हूँ जो धीरे-धीरे मेरे शरीर में फैल रही है। यदि तुम्हें सचमुच मुझसे प्रेम है तो (पड़े हुए छुरे को दिखाकर) तुम इंसकी धार पर चढ़ कर मेरे पीछे आ सकती हो। मेरा लौटना तो असम्भव है।
शारदा – मैं एक हिन्दू स्त्री हूँ। पति के सम्मुख प्राण त्यागना मेरे लिए गौरव की बात है।
(छुरा उठाती है, शिरीष बढ़ कर रोक लेता है)
शिरीष – बस शारदा! तुम सचमुच देवी हो।
शारदा – नहीं, आपके मुख पर श्यामता छा रही है। दीवानजी! शीघ्र डाक्टर को बुलाइए।
(बेहोश होकर गिर जाती है।)
शिरीष – (घबराकर और शारदा को झकझोरते हुए) यह सब कुछ नहीं है, मैंने तुमसे झूठ कहा था। यैं बिल्कुल ठीक हूँ।
शारदा – (होश में आकर) सच ?
शिरीष – हाँ, सच। मुझे गर्व है कि मेरी पत्नी एक आदर्श नारी है।
शारदा – मुझे लज्जित न करें। मेरी भूल की यही सजा है।
(छुरे की ओर देखती है ।)
सुरेश – अजी छोड़िए भी ये मरने-मारने की बातें । यही करना है तो खूब मोटी-मोटी रकमों की बीमा करा लें। दोनों को मरने से लाभ होगा। (घड़ी देखकर) अरे, मैं स्टेशन जाता हूँ। छाया मेरी प्रतीक्षा में सूख रही होगी। और आप, दीवानजी! अब इन्हें हिफाजत से सँभालिए। अबकी गलती हुई तो बस (गर्दन कटने का इशारा करता है |)
(जाता है)