diya jag ko tujhse jo paya
काल! तू कब किसका हो पाया!
जो भी ऊँचा चढ़ा, गिरा वह, पा किसने न गँवाया!
छवियाँ एक-एक से मोहक
टिक पातीं बस पल-दो-पल तक
मुझको तो लगता, वह सर्जक
बना तुझे पछताया
होकर भी अव्यक्त, अगोचर
रहता सबके साथ निरंतर
भूले भी जग स्रष्टा को पर
तू कब गया भुलाया!
पर सुन ले, यद्यपि कर तेरे
हैं इस निखिल सृष्टि को घेरे
वाणी-मंदिर में तो मेरे
चले न तेरी माया
काल! तू कब किसका हो पाया!
जो भी ऊँचा चढ़ा, गिरा वह, पा किसने न गँवाया!