diya jag ko tujhse jo paya
खोल दो सुर-मंदिर का द्वार
कब से, नाथ! खड़ा मैं लेकर सिर पर भारी भार
पथ ने यदपि बहुत भरमाया
पर मैं तो चलता ही आया
घिरती देख साँझ की छाया
किन्तु रहा अब हार
बस निशि भर विराम लेना है
प्रात, मुझे फिर चल देना है
ग्रसने अब तम की सेना है
जिह्वा रही पसार
गूँजें भी शत मंत्र कान में
थे मेरे तो तुम्हीं ध्यान में
ले श्रद्धा-विश्वास प्राण में
फिर-फिर रहा पुकार
खोल दो सुर-मंदिर का द्वार
कब से, नाथ! खड़ा मैं लेकर सिर पर भारी भार