diya jag ko tujhse jo paya

जग अपूर्णता का ही फल है
मुझको तो लगता, जगपति! तू आप पूर्णता हेतु विकल है

पूर्ण रहा यदि तू नभशायी!
क्यों तूने यह सृष्टि बनायी!
‘बहु स्याम’ इच्छा क्यों आयी?

क्यों यह सृजन-नाश प्रतिपल है?

यदि तूने यह सृष्टि बनाकर
की है बस लीला ही पल भर
तो बनने को पूर्ण, पूर्णतर

क्यों अणु-अणु यों रहा मचल है?

अच्छा! तुझे पूर्ण ही मानूँ
निज को तो अपूर्ण ही जानूँ
क्यों न उसे पाने की ठानूँ

जो अपूर्ण जग का संबल है

जग अपूर्णता का ही फल है
मुझको तो लगता, जगपति! तू आप पूर्णता हेतु विकल है