diya jag ko tujhse jo paya
आस है वृथा स्वाति के कण की
चातक रे ! क्यों तूने ऐसी निष्फल टेक ग्रहण की!
क्या देगा तुझको निष्ठुर घन
जिसमें नहीं प्रेम का स्पंदन
जो बदले में कर गुरु गर्जन
चोट करे पाहन की!
स्वाति बूँद में क्या रक्खा है!
देशकाल की कुल महिमा है
विष, वारुणी कि अमृत बना है
क्षमता से भाजन की
तेरी महासाधना का फल
क्या वह क्षण भर का कण भर जल!
उसे टेर, पाता है प्रतिपल
स्वाति-सुधा जिस घन की
आस है वृथा स्वाति के कण की
चातक रे ! क्यों तूने ऐसी निष्फल टेक ग्रहण की!