diya jag ko tujhse jo paya
दुखों में दुख ही क्यों तू माने!
क्यों न यही समझे कि पुराने ऋण थे तुझे चुकाने!
तूने लोभ-मोह-वश अपने
तोड़े थे कितनों के सपने
दिया दूसरों को न पनपने
तेरी ही ईर्ष्या ने
क्यों अब कहे कि अज्ञ निरा था
द्वेष-दंभ से क्या न घिरा था!
बोता विष के बीज फिरा था
निज को सुख पहुँचाने
तेरा कर्म तुझे ले बीता
क्या अब रोये, फल पा तीता!
जा प्रभु शरण, स्मरण कर गीता
क्यों सुख का हठ ठाने!
दुखों में दुख ही क्यों तू माने!
क्यों न यही समझे कि पुराने ऋण थे तुझे चुकाने!