diya jag ko tujhse jo paya

नाथ! यह कैसी रीति तुम्हारी!
पल में जला राख कर डालो हरी-भरी फुलवारी

जग में सदा कुटिल जन होंगे
दंड जिन्हें तुम दिया करोगे
पर क्यों वह जनता दुख भोगे

जो निर्दोष बिचारी!

देने कुछ दुष्टों को शिक्षा
क्यों सबकी लो क्रूर परीक्षा?
माँगें कहाँ दया की भिक्षा

शोक-विकल नर-नारी

रुष्ट हुई माँ शिशु से दो पल
ज्यों पुचकार पोंछती दृगजल
उर से लगा, भरो साहस, बल

यदि प्रभु! दुख दो भारी

नाथ! यह कैसी रीति तुम्हारी!
पल में जला राख कर डालो हरी-भरी फुलवारी