diya jag ko tujhse jo paya
मोह निजता का छोड़ न पाऊँ
सब कुछ तो छोड़ूँ पर कैसे इसे छोड़कर जाऊँ!
पल-पल काल कस रहा घेरा
मुँह फाड़े बढ़ रहा अँधेरा
महाशून्य कहता, ‘मैं तेरा
कुल अस्तित्व मिटाऊँ
ऐसे में यदि तू न सँभाले
निज को किसके करूँ हवाले!
मृत्यु भले ही तन को खा ले
मैं तो हाथ न आऊँ
यह जग दुखमय भी पर, जगपति!
विरति न तेरी कृति के भी प्रति
दे मुझको बस भक्ति, विमल मति
कुटी यहीं फिर छाऊँ
मोह निजता का छोड़ न पाऊँ
सब कुछ तो छोड़ूँ पर कैसे इसे छोड़कर जाऊँ!