diya jag ko tujhse jo paya

राग क्यों मौन किए अंतर के!
ज्यों सोने के पूर्व बुझा दे दीपक कोई घर के

नाथ! अभी तो कुल मेरे अभिलेख पड़े हैं आधे
जब तक तार बँधे, सुर फूटें, रहूँ मौन क्यों साधे!

क्यों भूले, अनुबंध किए थे मुझसे जीवन भर के!

मेरे क्षीण कंठ से था यह राग तुम्हीं ने गाया
भेड़ चरानेवाले से तुमने पुराण लिखवाया

हँसी तुम्हारी ही होगी यदि घट रीते हों स्वर के

हे अनंत! एकांश तुम्हारा ही तो है जग सारा
रहो झलक दिखलाते अपनी इस दर्पण के द्वारा

अभी बने रहने दो मन में ये विभेद निज-पर के

राग क्यों मौन किए अंतर के!
ज्यों सोने के पूर्व बुझा दे दीपक कोई घर के