geet ratnavali

अब तो माँ भी नहीं रही है,
जिसके आँचल में मुँह ढँक मैंने निज व्यथा सही है

बुझने को जब दीपशिखा है
क्या अब पति से मिलन लिखा है ?
सपने में जो मुझे दिखा है

आश्रम क्‍या न वही है?

बता, सखी! यदि काशी जाऊँ
क्या उनके दर्शन कर पाऊँ?
पति की पदरज शीश लगाऊँ

अंतिम साध यही हैं

देख मुझे असहाय, उपेक्षित
देंगे शरण न वे कोमल-चित!
क्या न सुनूँगी मैं भी, जग-हित

जो हरि-कथा कही है!

अब तो माँ भी नहीं रही है,
जिसके आँचल में मुँह ढँक मैंने निज व्यथा सही है