geet vrindavan

तुमने अच्छी प्रीति निभायी!
एक बार भी मोहन! ब्रज की ओर न दृष्टि फिरायी!

माना राजकाज था बंधन
जनहित में अर्पित था जीवन
किन्तु रुक्मिणी से मिलते क्षण

राधा याद न आयी!

गाँव गली कितनी भी छूटे
डोर प्रेम की कैसे टूटे!
क्यों रच-रचकर रास अनूठे

भोली प्रिया रिझायी!

राधा ने थी पढ़ी न गीता
सोचा भी, उसपर क्या बीता!
रोती फिरी लिये घट रीता

यमुना-तीर कन्हाई!

तुमने अच्छी प्रीति निभायी!
एक बार भी मोहन! ब्रज की ओर न दृष्टि फिरायी!