kagaz ki naao

अहम् का मोह न छोड़ूँ, स्वामी!
इसके बल से ही तो मैंने डोर भक्ति की थामी

भोग इसीसे लोकोत्तर सुख
सहज भुलाये हैं जग के दुख
रखकर अपने को श्रेयोन्मुख

हूँ अकाम सुखकामी

इससे ही प्रिय मुझे अमरता
अहं-रहित चित् का क्या करता!
कैसे रूप नये नित धरता

जीव मुक्ति-पथ-गामी!

आत्म-दीप में भक्ति-शिखा धर
विनय यही बस, चलूँ सुपथ पर
भूलूँ नहीं, मोहवश, पलभर

तुमको, अन्तर्यामी!

अहम् का मोह न छोड़ूँ, स्वामी!
इसके बल से ही तो मैंने डोर भक्ति की थामी