kagaz ki naao
रची, प्रभु! यह कैसी फुलवारी!
बन-बनकर मिटती जाती है जिसकी मीनाकारी!
फूल एक-से-एक खिलाता
पर क्यों उन्हें तोड़ता जाता?
नित नव सृष्टि कहाँ से लाता?
क्यों करता श्रम भारी?
सतत काल-पृष्ठों पर आँकी
पल-पल बदल रहा जो झाँकी
क्या पुस्तक में जग-रचना की
रहे सुरक्षित सारी!
हो भी यह जग नित सुन्दरतर
पर क्यों आते ऐसे अवसर
जी करता न हटे जीवनभर
दिखती जो छवि प्यारी?
रची, प्रभु! यह कैसी फुलवारी!
बन-बनकर मिटती जाती है जिसकी मीनाकारी!