kumkum ke chhinte
उस दिन संध्या के झुटपुटे में
मैं तुम्हारे मन के कितने
समीप आ गया था
जब चंपा के फूलों से कबरी सजाये
तुम मेरे पास आयी थी।
तुम्हारी आँखें कुछ कहने को झुक-सी रही थीं
ओर साँसें अटक-अटक कर रुक-सी रही थीं,
उनींदी पलकों की कोरों में केसर के डोरे लहराते थे
सुगंध के बादल उड़-उड़कर
मेरे ओंठों से टकराते थे।
फिर भी मेरे मन में असमंजस था
कि तुम्हारे अंतर का द्वार बंद तो नहीं है!
सागर कितना भी उमड़े, लहराये।
वेला तोड़ने को स्वच्छद तो नहीं है