naye prabhat ki angdaiyiyan

अनिश्चित निश्चिंतता!

कैसी है यह अनिश्चित निश्चिंतता!
उठकर जाता हूँ
तो द्वार स्वतः खुल जाता है,
लौटकर आता हूँ
तो कोई स्वागत को नहीं आता है,
जग रहा हूँ
तो कोई सुलानेवाला नहीं है,
सो रहा हूँ तो कोई जगानेवाला नहीं है!
पतझड़ हो चाहे वसंत हो,
सब जैसे एक अनावश्यक आरंभ हो,
एक निष्परिणाम अंत हो,

लहर उठे चाहे गिरे,
चाहे तट पर टूटकर बिखर जाय,
चाहे पुनः भटकती फिरे,
किसको अब यह चिंता है!
कोई अब उसकी अँगड़ाइयाँ नहीं गिनता है।
मैं निरंतर चलता रहूँ
या पार्क के किसी कोने में जा बैदूँ,
चाहे कंधे उचकाऊँ,
चाहे गर्दन ऐंठूँ,
कोई दृष्टि अब मेरी ओर उठनेवाली नहीं है,
दो घड़ी रुककर मुझसे बातें करे,
किसीके पास इतना समय खाली नहीं है।

अच्छा है,
उस डाल पर बैठी गौरैया-सा ही
मैं भी अपने पंख फड़फड़ाऊँ, और उड़ जाऊँ;
आकाश कौ नीलिमा से जुड़ जाऊँ।

1983