naye prabhat ki angdaiyiyan
पापी और पुण्यात्मा
पापी —
‘मैं साँप-सा धरती की गहराइयों में समा जाना चाहता हूँ,
मेरी चेतना उफनती नदी-सी अँधेरे सागर की ओर भाग रही है।
मेरा रोम-रोम किसी अज्ञात आकर्षण से नीचे-ही-नीचे सरक रहा है,
मिट्टी बार-बार मुझसे मेरा अस्तित्व वापस माँग रही है!
‘जलती हुई गंधक के धुएँ से मेरा दम घुट रहा है,
मैं इस अग्निकुंड से बाहर नहीं निकल पाता हूँ |
मेरी आत्मा किसी शैतान के वंदीगृह में सिसक रही है,
लपटें और भी ऊँची उठती हैं, जब मैं उन्हें बुझाने जाता हूँ।
‘मुझे भी कभी प्रकाश ने अपनी बाँहों में भर लिया था,
कभी मैं भी देवदूतों-सा आकाश में उड़ जाना चाहता था,
अपनी जड़ता को चादर की तरह उतारकर दूर फेंकते हुए
कभी मैं भी अमृत-सरोवर में डुबकियाँ लगाना चाहता था।
‘परंतु उन बातों से अब क्या लाभ! मैं अपनी नियति से विवश हूँ
इस पंक से निकलने का मेरा कोई प्रयत्न काम नहीं आता है!
मेरी वासनायें हर बार रक्तबीज-सी नयी होती जाती हैं,
मेरे संकल्पों का किला, आवेग की एक ही ठोकर से ढह जाता है |
पुण्यात्मा–
‘पतितों और पीड़ितों के लिए उसका द्वार कभी बंद नहीं होता,
हम एक दूसरे के पास-पास ही हैं, हमें किसीने अलग नहीं किया है।
ये नरक और स्वर्ग हमारे मन की काल्पनिक स्थितियाँ मात्र हैं,
हम वहीं रहते हैं जहाँ रहने का हमने अपने जी में ठान लिया है
तुम जानते हो कि तुम बुरे हो, इसलिए तुम बुरे नहीं हो,
तुम संघर्ष कर रहे हो, इसलिए सारे द्वार तुम्हारे लिए खुले हैं
तुम्हारी विकलता तुम्हें अनंत के परमधाम तक पहुँचा देगी,
भगवान को वही मुख प्यारे हैं, जो पश्चात्ताप के आँसुओं से धुले हैं।
इसलिए, सतत चेष्टा करते रहो, स्वर्ग के कपाट खुलकर रहेंगे,
आकाश के देवता भी यही देखने को, तुम्हारी ओर टकटकी लगाये हैं
कि कैसे तुम उठ-उठकर गिरते हो, गिर-गिरकर उठते हो
इसी तरह उठते-गिरते ही हम भी यहाँ तक पहुँच पाये हैं।’
1983