naye prabhat ki angdaiyiyan

स्थितप्रज्ञ

ओ मेरे मन!
भले ही तू गौतम बुद्ध की तरह
स्थितप्रज्ञता का दंभ भरता है,
मुझे तो केवल इतना बता दे–
मर्म पर जब आघात लगता है
तब तू कैसा अनुभव करता है!

कपटी विश्वासघातियों को देखकर भी
क्या तू सहज बना रहता है!
कुचक्रियों की कुटिल मुस्कान को भी
अज्ञान-जनित भोलापन कहता है !
ऐसे में स्थितप्रज्ञता
क्या तुझे भारी नहीं लगती!
राख की ओट में
कोई चिनगारी नहीं जगती !

विपन्नता में जब सभी तुझे छोड़कर
चले जाते हैं,
सगे-संबंधी भी
जब तुझे देखकर मुँह चुराते हैं,
तो भी क्‍या तू जड़भरत-सा
निश्चिन्त पड़ा सोता है!
या उस समय तेरा भाव कुछ और होता है!

जब तेरे जीवन की सारी कमाई
कोई अपने नाम कर लेता है,
तेरी समस्त उपलब्धियों का श्रेय
संसार दूसरों को दे देता है,
तो भी क्‍या तू वीतराग बना रहता है,
सब कुछ असंग होकर सहता है !

जब अयोग्यता और अनीति के द्वारा
न्याय और नीति की हँसी उड़ाई जाती है,
क्रूरता रानी बनी ऐंठती है,
सरलता सूली पर चढ़ायी जाती है,
तब भी क्या तेरा खून उबल नहीं पड़ता है !
तू तटस्थता के किले से
निकल नहीं पड़ता है!

1982