prit na kariyo koi
तीसरा सर्ग
किया प्यार दुष्यंत-सा तो ज़रूर
मगर मैं न भूला उसे होके दूर
सताती थी दिल को सदा उसकी याद
रही वह न दुनिया थी आने के बाद
बहुत उपनिषद, वेद भी पढ़ लिये
मठों, मंदिरों के भी चक्कर दिये
जुगत एक भी काम आयी -नहीं
जिगर की जलन छूट पायी नहीं
न खाने की सुध थी, न कपड़ों का होश
भटकता हो ज्यों कोई ख़ानाबदोश
कहीं बैठ जाता तो उठता नहीं
पहुँचा कहीं हो तो पहुँचूँ कहीं
ये कहकर ‘छिपा कोई भीतर है रोग!
लगे देखने मुझको हैरत से लोग
कहीं पर भी जब चैन आया नहीं
गया कुछ दिनों बाद फिर मैं वहीं
मगर अब वो महफ़िल थी सूनी पड़ी
था डर जिसका, आ ही गयी वह घड़ी
कभी जिसमें गूँजा था सुर प्यार का
वो घर मुझको वीरान जैसा लगा
किसीको न थी उस परी की ख़बर
“कहाँ से थी आयी, गयी वह किधर?’
लगा सोचने–‘अब कहाँ जाऊँ मैं!
करूँ क्यास, उसे किस तरह पाऊँ मैं!
महल मेरे सपनों का जब ढह गया
तो जीने का मतलब ही क्या रह गया!
उसे जान देकर भी पाऊँ कहीं
तो समझूँगा, सौदा है महँगा नहीं!
निगाहों में थी धुँध-सी छा गयी
हरेक बात पहले की याद आ गयी
चमकती थी, बिजली, घटा थी घिरी
अँधेरे की हर ओर कूची फिरी
लगा मुझको अजगर-सा जमना का जल
अभी जायगा ताज को ही निगल
गरजकर ये कहता था ज्यों आसमान
“मिटा दूँगा धरती का नामोनिशान
महल ऊँचे-ऊँचे, सुनहले मज़ार
वे सब जिनमें है प्यार की यादगार
खड़े वक्तर की रास जो थामने
टिकेंगे न दम भर मेरे सामने!
करूँ क्याम, मुझे कुछ न था सूझता
न था कोई ऐसा, जिसे पूछता
हो गर्दिश में शाही हरम भी जहाँ
वहाँ अपनी मुमताज ढूँढँ कहाँ!
अगर दे दूँ रो-रोके मैं जान भी
नहीं देख पाऊँगा उसको कभी
गया डूब मोती जो दरिया के बीच
बढ़ा हाथ कोई सका उसको खींच!
झलक भी न आयेगी उसकी नज़र
रहेगा तड़पना ही बस उम्र भर
तभी डूबते को कहीं दूर पर
सहारे-सा तिनके का आया नज़र
रुका अजनबी एक आ मेरे पास
कहा-‘मैं मिला दूँगा, मत हो हताश’
जहां आपके दिल की मलिका गयी
न मुझसे छिपी राह उस गाँव की
नहीं यों तो डर है किसी बात का
ज़रा बस है मुश्किल सफ़र रात का
अँधेरे में जाना है जमना के पार
है पैदल ही करना भी तय फिर कछार
वहाँ पर है जो एक जंगल घना
नहीं खेल समझें उसे लाँघना
भरे डाकुओं से है उस ओर घाट
हुए क़त्ल पिछले दिनों सात-आठ
उन्हें पार कर गाँव में हम अगर
पहुँच भी गये तो है कुत्तों का डर
वे हर अज़नबी पर मचाते है शोर
हमें रात में लोग समझें न चोर
मिलें साँप-बिच्छू भी जो रेत पर
तो मरने में फिर क्या रहेगी कसर!
सभी मुश्किलें पार होंगी ये जब
हम अपने ठिकाने पे पहुँचेंगे तब
“नहीं कोई लालच है, ले लें क़सम
मुझे खींच लाया है अपना ही गम
जो थी आपके प्यार में रँग गयी
वो मेरी सगी है बहन एक ही
सुना मैंने जब, आप आये यहाँ
पता कर रहे हैं, गयी वह कहाँ
तो तैयार सहने को सब आफ़तें
मैं आया हूँ चलने वहाँ रात में
‘गये आप जब से उसे छोड़कर
गयी सब से नाता ही वह तोड़कर
सदा आपका बैठ जपती है नाम
तड़पती हुई गाँव में सुबहोशाम
कहीं अब न दुनिया को ही छोड़ दे
मुझे डर है, दम ही न वह तोड़ दे!
ये सुनते ही दिल उड़के पहुँचा वहाँ
मेरी चाँदनी जा बसी थी जहाँ
लगा, दौड़ जाऊँ अभी उसके पास
कहूँ—‘ आ गया हूँ, न अब हो उदास’
हुआ राह का तो मुझे कुछ न डर
यही सोच–‘पहुँचूँ न जो उसके घर
ख़बर तो करे उसको जंगल की लास
कि आया था मिलने कोई देवदास’
चुनी अपनी तस्वीरवाली किताब
पता लिखके घर का, लिया उसमें दाब
उठा साथ चलने को मैं बेझिझक
न था अब गवारा, रुकूँ भोर तक
दिया जिसने तुलसी को रत्ना का प्यार
वही भूत मुझ पर हुआ था सवार
x x
न तैयार था कोई जाने को गाँव
बड़ी मुश्क़िलों से पटी एक नाव
मुसाफ़िर न थे साथ में और भी
महज़ बड़बड़ाता था माँझी कभी–
‘नहीं आज-सा मैंने मौसम ख़राब
कभी ज़िंदगी भर में देखा ज़नाब
हुआ चाँदनी में अमावस का रंग
हवा तेज़, तूफ़ान आने का ढंग
छिपा बादलों की गुफाओं में ताज
उलट-सी रही जैसे जमना भी आज
सभी आफ़तें जान पर एक साथ
ठहर ही न पाते हैं डाँड़ों पे हाथ’
तभी जैसे बिजली की तलवार से
अँधेरा कटा एक ही वार से
कोई जलपरी स्याह लहरों पे लोट
हुई जैसे दमभर में आँखों की ओट
उदासीभरी बेबसी की नज़र
भले ही नज़र में न पायी ठहर
न थी भूल पर दिल की पहचान में
वही, जिसकी धुन में था हैरान, मैं
वही जैसे बहती थी जमना के बीच
बढ़ा हाथ भी मैं न पाया था खींच
हुई नाव डगमग, गया टूट ध्यान
गरजने लगा ज़ोर से आसमान
न था उस तरफ़ का कहीं कोई छोर
महज़ रौशनी की थी झिलमिल-सी डोर
कभी मछलियों के पलटने की घात
कभी आके टकराये कछुओं की पाँत
अँधेरा कि सूझे न पतवार भी
कभी नाव पूरब थी पश्चिम कभी
उलटने से फिर-फिर बची बाल-बाल
वो चलती थी शैतान घोड़े की चाल
मगर आख़िर आ ही गया दम-में-दम
धरे पार जमना के हमने क़दम
अभी खुलके ले भी न पाये थे साँस
कहा मेरे साथी ने कानों के पास–
‘हमें कोस पैदल भी चलने हैं चार
न भाँपे कोई, हम नये हैं सवार
बढ़ें बेरुके राह पर यों क़दम
लगे, जैसे घर अपने जाते हैं हम’
किनारे से कुछ दूर पर ज्यों खड़े
हज़ारों ही दिखते थे दानव बड़े
बढ़े उस तरफ़ हम सहमते हुए
अँधेरे में पग-पग पे थमते हुए
निकल आये जब दलदली रेत से
चले बाजरे के हरे खेत से
नहीं राह का कुछ मुझे था पता
अँधेरे को था जा रहा चीरता
उठी सिर से ऊँची फ़सल दोनों ओर
गयी बीच से एक पतली-सी डोर
जिसे राह भी कोई कैसे कहे!
सहारे से बस पाँव थे बढ़ रहे
कहीं डाल पेड़ों की रोके थी राह
कहीं कोई झाड़ी पकड़ती थी बाँह
मेरे आगे-आगे था रहबर मेरा
धरे हाथ में हाथ कसकर मेरा
न जाने मुझे किन गुफाओं के बीच
लिये जा रहा था मेरा प्यार खींच
जहाँ हर क़दम पर था मरने का डर
चले आये जंगल भी हम लाँघकर
अभी गाँव के पास पहुँचे न थे
कि कुत्ते कई भूँकने लग गये
पुकारा किसीने तभी पेड़ से
“ये कौन आ रहा है उधर मेड़ से?
कहे नाम, इस गाँव का है अगर
नहीं तो अभी ख़त्म होगा सफ़र’
पलट मेरे साथी ने आवाज दी
कि भैया! तुम्हारे हैं हम दोस्त ही
बहन मेरी दुखिया शहर छोड़कर
इसी गाँव में कर रही है गुजर
उसे डाक्टर को दिखाना है आज
नहीं और कुछ भी है आने का राज़
अभी बात पूरी हुई भी न थी
दिखी पाँव में लीक-सी साँप की
उछलते गये दौड़ हम कोस भर
नज़र ज्यों ही आयी थी मंजिल मगर
हमें बादलों की गरज सुन पड़ी
गिरी सर पे पानी की बूँदें बड़ी
हवा सर्द, काटे न कटती थी राह
किये ख़ून थी गर्म मिलने की चाह
कभी सोचता था कि दर हो न बंद!
न करनी पड़े साँप की ही कमंद!
कहीं कुछ किसी को बताये बगैर
गयी हो न करने वो मथुरा की सैर!
भुला ही न बैठी हो मुझको कहीं!
मिली थाह औरत के दिल की नहीं
कदम थम गये आके चौखट के पास
धड़कने लगा दिल, रुकी जैसे साँस
था घर एक छोटा, सफ़ेदी किया
दिखा सामने टिमटिमाता दिया