rajrajeshwar ashok
प्रथम अंक : द्वितीय दृश्य
मगध का राजपथ
(राधागुप्त और बुद्धिसेन का प्रवेश)
बुद्धिसेन – इतनी भी क्या शीघ्रता है, राधागुप्त! आज सुना है राजप्रासाद में सुस्वादु मोदकों का भोज है।
राधागुप्त- बुद्धिसेन! तुमने कभी खाने-पीने के सिंवा संसार की कुछ भलाई भी की है?
बुद्धिसेन- भला खाने-पीने से बढ़कर भलाई का और कौन-सा कार्य हो सकता है! सुना है मछलियाँ भी होंगी।
राधागुप्त- यदि और कोई समय होता तो तुझे गंगा की धारा में डुबाकर जी भरकर मछलियाँ खिलाता। मूढ़ कहीं का! शकरानी और राजवैद्य के षड़्यंत्र से राजकुमार अशोक निर्वासित हो गये, उनके मित्र और शुभचिंतक एक-एककर पकड़े जा रहे हैं, सुसीम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ हो रही हैं और यहाँ मछलियाँ और मोदक की माला जपी जा रही है। अच्छा, मैं तो चला। कहीं पता चल गया कि मैं अभी तक यहीं हूँ तो लेने के देने पड़ जायेंगे। तुझसे किसी प्रकार की सहायता की आशा करना आकाश को दूहना है।
(जाने को उद्यत होता है।)
बुद्धिसेन – हाँ, हाँ, ठहरो, यदि मेरी तीन शर्तें पूरी कर सको तो मैं तुम्हारी बहुमूल्य सहायता कर सकता हूँ।
राधागुप्त- तुम्हारी क्या शर्तें हैं, जरा सुनूँ तो?
बुद्धिसेन – पहली शर्त तो यह है कि राजा चाहे कोई भी हो राजविदूषक मैं ही रहूँगा।
राधागुप्त – भला तुम्हारे जीवित रहते इस महान पद को कौन सुशोभित कर सकता है! मुझे स्वीकार है। दूसरी शर्त?
बुद्धिसेन – मुझे कभी युद्ध-भूमि में नहीं भेजा जाय, न कोई ऐसा कार्य करने को कहा जाय जिसके चलते प्राणों पर संकट की आशंका हो।
राधागुप्त – और तीसरी शर्त? वह भी सुन लूँ।
बुद्धिसेन – मुझे यह अधिकार हो कि फिर जब चाहूँ तीन और शर्तें पूरी कराने की माँग कर सकूँ।
राधागुप्त – छि: छिः मूर्ख! तुझसे बात करना समय की हत्या करना है।
बुद्धिसेन – और तुमसे बात करने का अर्थ है आत्म-हत्या। भला, जब मैं ही नहीं रहूँगा तो कुमार अशोक की सहायता कैसे करूँगा? राजनीति का महीन आँटा पीसते-पीसते इतनी मोटी बात तुम्हारी बुद्धि में कब आ सकती है?
राधागुप्त – चुप, चुप, मैं चला। देख, वह दुष्ट वैद्याज इधर ही आ रहा है जिसने अशोक को कुष्ट का रोगी बताया है। मुझे तो संदेह है कि इसीके किसी विष के द्वारा अशोक के शरीर में कुष्ट के से चिह्न प्रकट हुए हैं।
बुद्धिसेन – अजी, उसमें इतना साहस कहाँ! वह तो बस काठ का उल्लू है। उसके अनजाने की शकरानी ने ही किसी छल से वह विष अशोक के गले के नीचे उतरवाया होगा। तुम जाओ, मुझे उससे निपट लेने दो। ऐसा चिरायता का काढ़ा पिलाऊँगा कि सदा-सदा के लिए याद रखेगा।
(राधागुप्त का प्रस्थान)
बुद्धिसेन – जय धन्वंतरी महाराज की! वैद्यराज!
वैद्यराज – प्रसन्नध रहो, बुद्धिसेन! कहो, अच्छे तो हो?
बुद्धिसेन – क्या अच्छा रहूँगा, महाराज! कफ, पित्त, वायु बराबर कोई न कोई विकार बना ही रहता है। एक को दबाता हूँ तो दूसरा उभर जाता है। और खाँसी से तो कभी पिंड ही नहीं छूटता। लगता है, जैसे गले को भगवान ने खाँसने के लिए ही बनाया है।
राजवैद्य – ठहरो, मुझे देख लेने दो। (नाड़ी हाथ में लेकर) देखो, बुद्धिसेन! तुम्हें ज्वर है। खाँसी के साथ ज्वर रहने का अर्थ है, यक्ष्मा, नहीं, नहीं, यक्ष्माओं का राजा, राजयक्ष्मा। चरक ने लिखा है, राजयक्ष्मा के रोगी का जीवन सवेरे की ओस के समान है। देखो, तुम्हें चलना-फिरना, उठना-बैठना सब बंद करके नियमित रूप से औषधि लेनी होगी।
बुद्धिसेन – कहिये तो साँस लेना ही बंद कर दूँ। सचमुच आप यमराज के सहोदर हैं। भगवान शिवशंकर के अवैतनिक दंडाधिकारी। भला खाँसी हो मेरी स्त्री को और राजयक्ष्मा से पीड़ित होऊँ मैं!
राजवैद्य – अयँ? तुम्हारी स्त्री को! पहले तुमने क्यों नहीं बताया! यही तो मैं भी कहूँ, कि …
(सहसा उज्जयिनी के राज-ज्योतिषी का प्रवेश)
ज्योतिषी – नमस्कार, वैद्यजी !
राजवैद्य – कौन? उज्जयिनी के महामहिम ज्योतिषीजी, नमस्कार! नमस्कार!
बुद्धिसेन – जय वृहस्पति की, ज्योतिषी जी!
आशीर्वाद बुद्धिसेन, कहो कुशल तो है?
बुद्धिसेन – बैद्यराज के रहते किसकी कुशल है भला? “जाँको दया करि हाथ गहें, तिन हाथ गहे जमराज सवेरे…
ज्योतिषी – अहाहा, धन्य है, धन्य है, मगध के राजवैद्य निःसंदेह यमुना मैया के सगे भैया हैं।
राजवैद्य – (नहीं समझते हुए) क्या कहा?
बुद्धिसेन – मैं तो कह रहा था, महाराज! कि मेरी स्त्री को…
हाँ, हाँ, क्या हुआ तुम्हारी स्त्री को?
बुद्धिसेन – महाराज, मेरी स्त्री मर गयी।
ज्योतिषी – नारायण, नारायण, भगवान का ध्यान करो, बुद्धिसेन!
राजवैद्य – (आश्चर्य से) मुझे तो अभी कह रहे थे कि उसे खाँसी हो गयी है।
बुद्धिसेन – हो गयी है नहीं, हो गई थी महाराज। (रोने का अभिनय करता है) कल रात आपके औषधालय से औषधि मँगायी थी। औषधि गले के नीचे उतरी नहीं कि … (फिर रोने का अभिनय करता है)
ज्योतिषी – (समझाते हुये) दुःख मत करो । यह सब भगवान की माया है। मैं उसके लिए थोड़े ही सोच रहा हूँ। वह तो बेचारी जहाँ कहीं भी होगी यहाँ से अच्छी ही होगी। मैं तो वैद्याज के लिए चिंतित हूँ।
राजवैद्य – मेरे लिए! क्या हुआ है मुझे?
बुद्धिसेन – मेरी स्त्री ने मरते समय कहा था कि वैद्यराज ने मुझे औषधि के बदले विष दे दिया है। मैं प्रेत बनकर उनसे प्रतिशोध लूँगी।
ज्योतिषी – तुम्हारी परिहास-वृत्ति ऐसे अवसर पर भी नहीं छूटती, बुद्धिसेन !
परिहास नहीं महाराज, सुबह से ही घर में प्रेत का उपद्रव प्रारंभ हो गया है। थोड़ी देर पहले उसने कहा कि राजवैद्य किसी भीषण षडूयंत्र में लगे हैं। प्रेत को तो, आप जानते ही हैं, सारा गुप्त रहस्य वैसे ही स्पष्ट दिखाई देता है, जैसे रात में उल्लू को। वह कह रही थी…
राजवैद्य – (डरे हुए स्वर में) क्या कह रही थी?
बुद्धिसेन – कह रही थी कि कल राजवैद्य का सिर आकाश में दिखाई देगा और धड़ जमीन के नीचे | उन्होंने अशोक के न्याययुक्त उत्तराधिकार में बाधा पहुँचायी है।
(राजवैद्य डरकर अपना सिर टटोलता है)
(नेपथ्य में शोर-गुल होता है)
अरे देखिए, वह इधर ही आ रही है। भागिए महाराज, मैं तो चला।
(जाता है)
ज्योतिषी – मैंने तो पहले ही आप से कहा था कि यह अन्याय है। आपको लोभ में आकर उसमें सहयोग नहीं देना चाहिए था।
यह अन्याय है।
राजवैद्य – मुझसे तो शकरानी ने पारद-भस्म माँगा था। मैं क्या जानता था कि कुमार अशोक पर उसका प्रयोग होगा। और फिर मेरे भस्म का कुप्रभाव भी तो अधिक दिनों तक नहीं ठहरता है। अशोक के शरीर से सारे चिह्न शीघ्र ही लुप्त हो जायँगे। (रुककर) प्रेत की छाया नहीं होती, क्या यह सच है, ज्योतिषी जी?
ज्योतिषी – (हँसकर) अब खरबूजा रंग पर चढ़ा है। अजी आप बेकार ही डरते हैं। जितने व्यक्ति आपकी औषधि खाकर मर गये, यदि वे सब के सब प्रेत बन कर आने लगें तो पाटलिपुत्र में खड़े होने का स्थान न मिले। (हँसता है) कुष्ट के चिह्न लुप्त हों या न हों, अशोक का राज्य तो लुप्त हो ही गया। अच्छा
जाने दीजिए इन बातों को, यह तो बताइए कि युद्ध का कोई नया समाचार सुना है।
राजवैद्य – कुमार अशोक को तक्षशिला का सेनापति नियुक्त किया गया
है। (रुककर) प्रेत-बाधा-शांति के लिये कौन से ग्रह की पूजा
करनी चाहिए, ज्योतिषीजी !
ज्योतिषी – अजी प्रेत-वेत की चिंता छोडिए। हाँ, कुमार अशोक तो निर्वासित कर दिये गये थे?
राजवैद्य – शकरानी की माया वही जाने। शकरानी ने उनके लिये विशेष दूत भेजा है कि वे जहाँ कहीं भी हों उन्हें ढूँढ़कर विद्रोह शांत करने के लिए सप्राट् के प्रतिनिधि के रूप में तक्षशिला भेज दिया जाय! (निकट आकर) जानते हैं,ज्योतिषीजी! यह सब महारानी की चाल है। वे चाहती हैं कि सॉँप भी मरे और लाठी भी न टूटे।
ज्योतिषी – समझ गया, समझ गया!
(सहसा नेपथ्य में भयानक आवाज। दोनों भयभीत होकर देखते हैं। दूर एक छायामूर्ति दिखाकर)
राजवैद्य – (डरकर) ज्योतिषीजी, मुझे बचाइए, प्रेत, प्रेत!
ज्योतिषी – प्रेत-लीला में ग्रहों का वश नहीं चलता वैद्यजी, आप उसीसे क्षमा-याचना करें । मैं तो चला। कहीं आपका मित्र समझकर मेरे पीछे भी न लग जाय। (ज्योतिषी का प्रस्थान)। अंधकार।
(एक छाया का प्रवेश)
प्रेत – सावधान, राजवैद्य! तेरा अंत निकट है।
राजवैद्य – अंत! मेरा…अंत! अर्थात् मृत्यु! क्षमा, हे प्रेत-कुल-कमल-दिवाकर! हे असुर-सम्राट्! क्षमा कीजिए!
(प्रेत-छाया आगे बढ़ती है)
राजवैद्य – (अत्यंत भयभीत होते हुये) मुझे मारिए मत, अभी बुढ़ापे में पाँचवाँ विवाह किया है। मेरी स्त्री अभी अबोध है।
(प्रेत और आगे बढ़ता है)
बिल्कुल बच्ची है, महाराज !
प्रेत – नहीं, तुझे मरना ही होगा। बुढ़ापे में एक बालिका का जीवन नष्ट करनेवाले के साथ दया नहीं की जा सकती। मूढ़ ! तेरे पापों का अंत नहीं।
राजवैद्य – क्षमा, क्षमा, पूरा बीस बिस्वा ब्राह्मण हूँ। आएको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, प्रेतराज! (प्रेत पास आंता है) अरे बाप रे!
प्रेत – क्या तूने शकरानी के कहने से अशोक को कुष्टरोगी नहीं बताया था?
राजवैद्य- अपराध, मुझसे भयानक अपराध हुआ है, देव! क्षमा करें। अशोक तो सर्वथा नीरोग हैं। उनके शरीर में तो पारे के भस्म के चिह् हैं जो शीघ्र ही मिट जायँगे।
प्रेत – अच्छा तो अपने अपराध की स्वीकारोक्ति इस तालपत्र पर लिख । शीघ्रता कर।
राजवैद्य – मुझे मारिए मत, मेरी स्त्री पर, उसकी होनेवाली संतानों पर दया कीजिए। (लिखता है)
प्रेत – जा, इस बार तुझे छोड़ दिया। फिर ऐसा पाप मत करना।
(वैद्यराज पलायन करते हैं)
(प्रेत अपने बाल हटाकर बुद्धिसेन बन जाता है)
बुद्धिसेन – (हँसते हुये) मूर्खराज! वैद्यराज! यह भी नहीं जानता कि बुद्धिसेन अविवाहित है। भला विवाह करता तो (सिर की और इंगित करके) इस मैदान पर एक भी तृणांकुर दिखाई देता! चलूँ, शीघ्र कुमार अशोक से भेंट करूँ। कहीं शकरानी की चाल सफल न हो जाय।
(जाता है)