rajrajeshwar ashok
द्वितीय अंक : प्रथम दृश्य
युद्धक्षेत्र का दृश्य
(सुसीम और महाबलाधिकृत बातें करते हुए)
सुसीम – महाबलाधिकृत! तुमने मुझे यदि सेना के समर्थन का पूरा विश्वास न दिलाया होता तो मैं कभी यह युद्ध न ठानता। एक-एक कर मेरे सभी समर्थक मारे गये। महाभारत के युद्ध के अंतिम दिन जो दशा दुर्योधन की थी, वही आज मेरी है।
महाबलाधिकृत – कुमार धैर्य रखिए। चोल, बंग और कलिंग की सेना आयी नहीं कि मगध के सैनिकों के पाँव उखड़ जायेंगे। मैं मगध-वासियों की वीरता भली-भाँति जानता हूँ।
सुसीम – (व्यंग्य से) तुम भी तो मगधवासी ही हो न, महाबलाधिकृत! वीरता किसी एक देश और जाति की जन्मसिद्ध संपत्ति नहीं है, वह तो संपूर्ण मानवता के लिये दैव का वरदान है। अशोक
पर इस समय विधाता का विशेष अनुग्रह जान पड़ता है।
महाबलाधिकृत – निःसंदेह इस समय अशोक का पलड़ा भारी है, परंतु युद्ध में तो ऐसा होता ही है। रणनीति के निष्फल होने पर कूटनीति का प्रारंभ होता है, देव! मैंने एक विषकन्या को सम्राट् अशोक के पास भेजने का विचार किया है। जो काम धनुषधारियों के तीर नहीं कर पाते उसे रमणी के नयन-बाण एक निमिष में कर देते हैं।
सुसीम – नहीं, महाबलाधिकृत! अशोक को विधाता ने किसी और ही धातु का बनाया है। सुरा और सुंदरी का उसकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं।
महाबलाधिकृत – कुमार को इतना निराश नहीं होना चाहिये। अभी बंग और कलिंग की सेनाओं के आ जाने से युद्ध का पासा फिर पलट सकता है।
सुसीम – अब मुझे बंग और कलिंग नहीं, भगवान की सहायता की आवश्यकता है, महाबलाधिकृत! छिन्न-भिन्न सेना को एकत्र कर एक बार फिर अंतिम दाँव लगा दो।
(दूत का प्रवेश)
दूत – कुमार की जय हो! आपकी माता ने विषपान कर लिया है और सम्राट् विंदुसार अर्ध-विक्षिप्त-से होकर बौद्ध-विहार में चले गये हैं।
(दूसरे दूत का प्रवेश)
दूत – कुमार की जय हो! अशोक ने अपने को मगध का सम्राट् घोषित कर दिया है।
सुसीम – ठहरो, ठहरो, इनमें से प्रत्येक दुःसंवाद पर शोक मनाने के लिये कम से कम एक मास का अंतर तो होना ही चाहिये। (हँसता है) विपत्तियों की श्रृंखला, आज मैं मतवाले कुंजर के समान तेरी रत्ती भर परवाह नहीं करता। यदि दुःख दस हैं तो रोनेवाली आँखें की संख्या दो सौ हैं। दूत, जाओ, मगध के सभी राजकुमारों को आदेश दो कि अपनी-अपनी डुकड़ियाँ लेकर एक साथ पाटलिपुत्र पर टूट पड़ें, और तब तक विराम न लें जब तक मगध की ईंट से ईंट न बज जाय। प्रतिहार! मेरा कवच दो। आज मुझे स्वयं अशोक से दो-दो हाथ करने हैं। यह कसक भी क्यों रह जाय!
(तीसरे दूत का प्रवेश)
दूत – बालक तिष्य और वीतशोक को छोड़कर सभी कुमार रण में निहत हो चुके।
सुसीम – प्राण ले लूँगा। ऐसी बात मुँह से मत निकालो। सैनिको! इस दूत को शीघ्र मेरी आंखों के आगे से दूर करो, शीघ्र! शीघ्र !
(सैनिक और सभी दूत जाते हैं)
सुसीम – सभी कुमार रण में निहत हो चुके! एक मैं ही अभागा जीवित हूँ। ओह! सुसीम की जीवन-मंजूषा पर भाग्य की रक्तिम छाप लग चुकी है! तो फिर धधक जीवन-ज्वाले, बुझने के पूर्व एक बार जोर से धधक, जिससे सारा विश्व तेरी चकाचौंध से चमत्कृत हो उठे । चलो महाबलाधिकृत, अंतिम दाँव लगाकर देखें।
(प्रस्थान)
(एक ओर से देवी और ललिता का नट और नटिनी के वेष में प्रवेश)
देवी – ललिता! सारे युद्धक्षेत्र को छान डाला। आर्यपुत्र को देखने को आँखें तरस रही हैं। चारों ओर से शुभ समाचार सुनने को मिल रहे हैं पर मेरे मन को धीरज नहीं बँधता।
ललिता – पति के जीवन-मरण-संघर्ष में पत्नी की विह्वलता स्वाभाविक है, देवि! नहीं-नहीं, देवकुमार। युद्ध तो युद्ध ही है। न जाने कब क्या हो जाय! राख में दबी एक चिनगारी भी सारे भवन को जलाकर क्षार कर सकती है। और अभी तो सुसीम अपने सहयोगियों के साथ जीवित है। सुना है उसका महाबलाधिकृत चंडगिरि बड़ा धूर्त है।
देवी – भगवान आर्यपुत्र की रक्षा करें। तेरी बातें सुनकर तो मेरा जी काँपने लगा। (सामने देखकर) देख तो वह कौन आ रहा है? कोई सुसीम की सेना का बड़ा अधिकारी जान पड़ता है। सावधान, अपना भेद न खुल जाय।
(चंडगिरि का प्रवेश)
चंडगिरि – (देवी और ललिता को नट और नटिनी के वेष में देखकर) तुम लोग यहाँ कौन-सी नट-विद्या दिखा रहे हो जी? (ललिता की ओर देखकर और उसकी सुंदरता से प्रभावित होते हुए)
यह स्थान क्या ऐसी अप्सराओं के योग्य है?
देवी – (आगे बढ़कर) हम लोग उज्जयिनी के कलाकार हैं। मगध में अपने भाग्य की परीक्षा करने आये तो देखते हैं कि यहाँ तो मारकाट मची हुई है।
चंडगिरि – (ललिता की ओर देखते हुए) और यह तुम्हारी कौन है?
देवी – यह मेरी (शरमाकर रुकते हुये) इसीसे पूछ लीजिए न।
चंडगिरि – (हँसते हुए) समझ गया, तुम दोनों की जोड़ी भगवान ने अपने हाथ से बनायी है। (ललिता की ओर मुड़कर) इसे क्या कहकर पुकारूँ?
देवी – (ललिता की ओर आँख मारते हुए) मैं तो इसे कई नामों से पुकारता हूँ परंतु आप ललिता कह सकते हैं।
चंडगिरि – ललिता! बड़ा ललित नाम है! वाह!
(ललिता की ओर बढ़ता है)
ललिता – बस, बस, आर्य, दूर से ही बातें करें। हम लोग केवल कला के व्यापारी हैं।
चंडगिरि – (हँसते हुये) ‘क्वचित् गानवती सती! ।
ललिता – मैं उसी क्वचित में हूँ।
चंडगिरि – जानती हो, मैं कौन हूँ। मगध का महाबलाधिकृत चेंडगिरि। तुम सारे मगध में घूमकर जितना उपार्जन करोगी, उतना मैं तुम्हें एक बार में ही दे सकता हूँ।
देवी – (विनोद से रस लेते हुए) क्षमा करें, आर्य! अभी यह नासमझ है। श्रीमान् का महत्त्व क्या जाने! वह तो मैं जानता हूँ। क्या श्रीमान् हमें सम्राट् सुसीम की राज-सभा में अपने कला-प्रदर्शन
का अवसर देंगे। (चंडगिरि को ललिता की ओर सतृष्ण नयनों से देखते, देखकर) इसकी चिंता आप न करें। (ललिता की ओर आँख मारकर) यह तो आपकी छत्रछाया में ही है। परंतु देशकाल की मर्यादा का पालन तो अपनी स्त्री के साथ भी करना होता है? यह तो परायी है।
चंडगिरि – हाँ, यह तो ठीक ही है। (ललिता की ओर देखते हुए) परंतु मन के धैर्य का भी तो कुछ आधार होना चाहिये। (ललिता की ओर बढ़ता है) ललिता अपने वक्ष-प्रदेश में छिपाया हुआ खड़्ग निकाल लेती है और कुछ तनकर तिरछी खड़ी हो जाती है।
ललिता – महाबलाधिकृत नारी के हृदय को बल से अधिकृत नहीं कर सकते।
चंडगिरि – (चौंककर पीछे हटते हुए) तुम्हारा शौर्य और साहस प्रशंसनीय है। तुम्हें साधारण नर्तकी समझने की भूल किसीको नहीं करनी चाहिए। (कुछ सोचते हुए प्रसन्नता से) ओह, तुमसे बहुत बड़ा काम निकल सकता है। (देवकुमार की ओर) क्या तुम लोग मेरा एक कार्य कर सकोगे? तुम्हें बहुत बड़ा पुरस्कार मिलेगा।
देवी – (उत्सुकता से) कौन-सा कार्य, श्रीमान्? हम लोग तो श्रीमंतों की सेवा के लिए ही बने हैं।
चंडगिरि – तुम्हें आज रात को राज-उपवन में अशोक के सम्मुख अपना नृत्य दिखाना होगा और कादंब के पात्र में (एक पुड़िया निकालकर) यह दवा अशोक को पिला देनी होगी।
देवी – यह क्या है, श्रीमान?
चंडगिरि – विश्राम-वटिका। अशोक के उद्विग्न प्राणों को शांति पहुँचाने के लिए इस औषधि की व्यवस्था की गई है।
देवी – (शंका से) परंतु इससे उनका कुछ अनिष्ट तो नहीं होगा?
चंडगिरि – (कुटिलता से) उनका अनिष्ट हो या इष्ट, तुम्हारे लिए तो लाभ ही लाभ है। चेतना में आने पर तुम्हें जितना पुरस्कार अशोक देंगे, यदि चेतना न लौटी तो उससे दुगुना पुरस्कार सुसीम की ओर से मिलेगा। (माला निकालकर देता है) यह लो अग्रिम भेंट।
देवी – (समझते हुए) समझ गया, समझ गया, (माला हाथ में लेता हुआ) आर्य! हमें राज-उपवन मैं प्रवेश कैसे करने दिया जायगा? और फिर वहाँ प्रवेश भी कर गये तो… (रुक जाता है)
चंडगिरि – तो क्या?
देवी – कुमार अशोक ने कादब न स्वीकार किया तो?
चंडगिरि – (अपनी अँगूठी देतें हुये) राजउपवन में प्रवेश करने के लिये और नृत्य की व्यवस्था के लिये तो यह पर्याप्त है और (ललिता की ओर देखकर) ऐसी मन-मोहिनी नारी के हाथों से हलाहल का पात्र भी कोई पुरुष अस्वीकार नहीं कर सकता। तुम बस इसे सहमत कर लो।
देवी – अजी, इसकी चिंता आप न करें।
(जाने को होते हैं)
चंडगिरि – जरा ठहरो, अभी तुम लोगों ने अपनी नृत्यकला का परिचय तो दिया ही नहीं। (रसिकता से ललिता की ओर देखकर) हाँ, तो हो जाय, एक हृदय को फड़काने वाला नृत्य। देखूँ तुम्हारी कला।
देवी – अवश्य, अवश्य, यह तो हमारा कार्य ही है। (ललिता से) प्रिये एक मनमोहक नृत्य दिखा दो न! मगध के सेनापति भी उज्जयिनी की नृत्य-कला का चमत्कार देखें।
(ललिता का नृत्य)
चंडगिरि – (नृत्य की समाप्ति पर मुग्ध स्वर में) धन्य है! धन्य है! कैसा अदुभुत नृत्य है! मुझे. तुम्हारी सफलता में लेश मात्र भी संदेह नहीं है। मगध का राज-सिंहासन सदैव तुम्हारा अनुगृहीत रहेगा। (रुककई और ललिता प्रर आँखे गड़ाते हुए) और मगध का महांबलाधिकृत तुम्हारा दासानुदास। अच्छा, तुम लोग ठीक समय पर राज-उपवन में पहुँच जाना।
(महाबलाधिकृत चंडगिरि जाता है)
देवी – ललिता! शीघ्र चल, आर्यपुत्र के प्राण संकट में हैं। मैं नर्तकी बनकर जाऊँगी। हम ठीक समय पर पहुँचे हैं। यदि सचमुच किसी नर्तकी को यह कार्य मिल जाता तो अनर्थ हो जाता।
ललिता – चलिए, देवि! ईश्वर हमारी सहायता कर रहा है।
(दोनों जाती हैं)
(एक ओर से अशोक का हाथ में तलवार लिये प्रवेश)
अशोक – कहाँ गया, मौर्य-कुल का कलंक ? यही तो उसका शिविर है।
(दूसरी ओर से सुसीम का प्रवेश)
सुसीम – कौन? अशोक?
अशोक – अशोक नहीं तुम्हारा काल! सुसीम! आत्मसमर्पण करो, तुम्हारी सेना भाग चुकी है।
सुसीम – मैं तुझ जैसे भगोड़े को. आत्मसमर्पण करूँ? मेरी धमनियों में भी आर्य-रक्त है, मैं भी सम्राट् चन्द्रगुप्त का पौत्र हूँ। (तलवार का वार करते हुये) ले, अपने किये का फल भोग!
(अशोक तलवार का वार बचाकर सुसीम पर आक्रमण करता है। सुसीम गिरता है। दूसरी ओर से राधागुप्त, खललातक और सैनिकों का प्रवेश)
सब – सम्राट् अशोक की जय हो!
अशोक – (खल्लातक से) महामात्य! सारे साम्राज्य में घोषणा कर दी जाय कि इस महान विजय के उपलक्ष्य में एक मास तक अनवरत उत्सव मनाया जायगा। अत्यंत जघन्य उपराधियों को छोड़कर शेष सारे वंदी मुक्त कर दिये जायँ।
खल्लातक – जैसी आज्ञा, सम्राट!
अशोक – राधागुप्त! तुम्हें मैं मगध के युद्धमंत्री का पद देता हूँ।
राधागुप्त – तब तो मुझे अभी अवकाश ही अवकाश रहेगा।
अशोक – तुम भूलते हो, राधागुप्त! एक युद्ध की समाप्ति दूसरे युद्ध की भूमिका हुआ करती है। (खल्लातक की. ओर मुड़कर) सब घायल और मृत सैनिकों के परिवार की पूरी व्यवस्था कर दें। महामात्य! अशोक का साथ देनेवाला कोई भी व्यक्ति अपुरस्कृत न रह जाय। (सुसीम के शव को देखकर) हाँ इसका भी सैनिक-सम्मान के साथ संस्कार कर दें। अब हमें भवन की ओर चलना चाहिए।
(सब लोगों का प्रस्थान)