rajrajeshwar ashok
तृतीय अंक : प्रथम दृश्य
(नालंदा का बौद्ध विहार। भिक्षु उपगुप्त और एक बौद्ध भिक्षु गंभीर मुद्रा में बैठे हैं)
भिक्षु – आचार्य! नालंदा के बौद्ध-विहार का क्या होगा? सहस्रों बौद्ध भिक्षु कहाँ जायँगे? प्रतिदिन रुलानेवाले समाचार आ रहे हैं। विदेशी हूणों, शकों और यवनों के अत्याचारों को भी तुच्छ ठहराती हुई अशोक की सेना आर्यावर्त का विध्वंस करती जा रही है। गृहस्थों के घर से अन्न और दूध सेना के पोषण के लिए छीन लिये जाते हैं। पंडित और व्यापारी, शिल्पी और श्रमिक, सभी वर्ग संत्रस्त हैं। सभी नृशंस युद्ध-नीति में पिसे जा रहे हैं।
उपगुप्त शांत रहो वत्स! विद्युत् का ताप क्षणिक है, मेघ की शीतल जलधारा ही स्थायी होती है।
भिक्षु – सुना है, दक्षिण-प्रदेश को पदाक्रांत करके अशोक स्वयं कलिंगवासियों को उनकी स्वातंत्र्य-प्रियता का पुरस्कार देने कलिंग की ओर प्रस्थान कर रहे हैं।
उपगुप्त – शांत, वत्स! शांत, हिंसा के पूर्ण विस्फोट के पश्चात् ही अहिंसा का उदय होता है। धरती जब भली भाँति तप चुकती है तभी शीतल मेघमाला का दर्शन होता है।
भिक्षु – परंतु, आचार्य ! यह ताप तो असह्य होता जा रहा है। नित्य अनेक बौद्ध भिक्षु तलवार के घाट उतारे जा रहे हैं। भगवान तथागत के देश में ही उनके धर्म पर कुठाराघात हो रहा है। अशोक का अभिमान चरम सीमा पर जा पहुँचा है। बताइए हम क्या करें, कहाँ जाये!
उपगुप्त – वत्स! तुम्हारी नसों में कुल-पंरपरा के कारण क्षात्र रक्त प्रवाहित हो रहा है। क्या तुम भूल गये कि हमें क्रोध को शांति से, बैर को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा से जीतना चाहिए? यही भगवान तथागत का संदेश है। हमें प्रयत्न
करना चाहिये कि अशोक के उत्साह को अधर्म से धर्म की ओर मोड़ें, हिंसा से अहिंसा की ओर प्रेरित करें।
भिक्षु – इसी प्रयत्न में तो हजारों भिक्षुओं को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा है, आचार्य ! पाटलिपुत्र का दुर्गपाल चंडगिरि तो जैसे साक्षात यमराज ही है। बौद्ध-भिक्षुओं को तो कीड़ों-मकोड़ों से भी सस्ता समझता है। अशोक के शासन के पूर्व
सुसीम की क्रूरताओं का साथी भी तो वही था।
(बाहर कोलाहल सुनाई पड़ता है।)
भिक्षु – देखता हूँ, कैसा कोलाहल है!
(प्रस्थान । कुछ ही क्षणों के पश्चात् पुनः घरबराये हुए प्रवेश)
भिक्षु – आचार्य! बुद्धगया का पवित्र बोधि-वृक्ष अशोक की आज्ञा से काटा जा रहा है। महास्थविर ने उसके नीचे बैठकर शांति-पाठ करते हुए प्राण त्याग दिये। यह भी समाचार मिला है कि बुद्धगया का महाविहार पूर्णतः विनष्ट कर दिया गया है। दस हजार भिक्षु फल्गु नदी के तट पर जंगलों में भूखे-प्यासे इधर-उधर प्राण बचाते हुए भटक रहे हैं।
उपगुप्त – नहिं वेरेण वेराणि सम्मंतीध कदाचन
अवेरेण हि सम्मंति, एसो धम्मो सनंतनों
बोधिवृक्ष अछेद्य है, बुद्धगया को कोई ध्वस्त नहीं कर सकता वत्स! सूचना भेज दो कि जो भिक्षु बुद्धगया में न रहना चाहें, वे नालंदा आ सकते हैं।
भिक्षु – (उत्तेजना से) आचार्य! हम लक्ष-लक्ष भिक्षुओं की सहायता से सारे आर्यावर्त में अशोक के विरुद्ध ऐसा झंझावात उठा सकते हैं कि उसका समस्त साम्राज्य तिनके के समान उड़ जाय। सारे आर्यावर्त में भीतर ही भीतर विद्रोह का दावानल सुलग रहा है। बस विस्फोट की प्रतीक्षा है। आज तो हमारे शांति के प्रयास भी उसके लिए वरदान ही सिद्ध हो रहे हैं।
उपगुप्त – वत्स! संघ सदैव शांति-प्रसार का कार्य करता रहा है और करता रहेगा। हमें अशोक के प्रति प्रेम का भाव रखते हुए उसके अत्याचारों का सविनय प्रतिरोध करना चाहिए। आग, आग से नहीं बुझती, जल से बुझती है। मैं अब महास्थविर प्रज्ञाधर के लिए शांति-प्रार्थना करने जाता हूँ। अनुद्विग्न रह कर धर्म में संलग्न रहो।
(उपगुप्त का प्रस्थान)
(भिक्षु टहलता हुआ स्वगत बोलता है।)
भिक्षु – आचार्य की शांति अद्भुत है। द्वेष का दावानल भी इनके संपर्क से करुणा की कालिंदी बन जायगा। यदि एकबार अशोक से इनका सामना हो जाता तो … (सहसा बुद्धिसेन का प्रवेश)
बुद्धिसेन – यह रही! एक सोने की खान यहाँ भी है।
भिक्षु – क्या कह रहे हैं, भद्र ? बौद्ध बिहार में सोने की खान कहाँ से आयी?
बुद्धिसेन – भिक्षु का सिर टटोलकर एक सहस्र, अहाहा! यहाँ कितने बौद्धमिक्षु हैं।
भिक्षु – यही कोई दस सहस्र होंगे।
बुद्धिसेन – इतनी बड़ी गणना तो मैं कर ही नहीं सकता। कोई तालपत्र
और लेखनी लाकर दो, भाई! शीघ्रता करो।
भिक्षु – कैसी गणना करना चाहते हैं, भद्र !
बुद्धिसेन – वही। सोने की खान में कितना सोना हे, उसीकी। (ऊँगली पर जोड़ते हुये) दस सहस गुणे एक सहस्र । ओह गणित के शिक्षक कितना समझाते थे, ‘बेटा! गणित का अभ्यास कर ले, बड़े काम की वस्तु है, परंतु मुझ मूर्ख को तो व्याकरणाचार्य बनने की धुन समायी थी। अब इस गणना में पाणिनि क्या सहायता कर सकते हैं, भला! गणिताचार्य की बात मानता तो आज क्यों हाथ मलना पड़ता! और व्याकरण घोटो।
भिक्षु – कैसी गणना करनी है, भद्र ! मुझे बताइए न। सोने की खानें कहाँ हैं? इस महाविहार का सारा हिसाब तो मैं ही देखता हूँ। अभी आपकी गणना कर दूँगा। स्पष्ट समझाइए।
बुद्धिसेन – तुम्हारी सहायता लेने में भी घाटा है। पूरी एक सहस्र स्वर्ण-मुद्राओं का। तुमसे गणना करवा कर तुम्हारा मस्तक कैसे कटवा सकता हूँ, भला? और यदि कटवा भी दूँ तो आगे की मेरी गणना कैसे होगी! वह जो राजकोषाध्यक्ष है न, वह बहुत चालबाज है। अवश्य वह मेरी गणित की दुर्बलता का लाभ उठाकर मेरी स्वर्ण-मुद्राओं में गड़बड़ी कर देगा।
भिक्षु – आपकी गणना करने से मेरा सिर क्यों कटने लगा? सोने की खाने कहाँ मिली हैं?
बुद्धिसेन – इतनी-सी बात भी नहीं समझते! एक मुंडित सिर का मूल्य एक सहस्र मुद्राएँ तो दस सहस्र मुंडित सिरों का मूल्य कितना हुआ। हाय! हाय! यदि गणित पढ़ा होता तो कितना काम देता? भाई! मेरी सहायता करो। मेरा गणित बैठा दो।
भिक्षु – या तो तुम सिड़ी हो या (रुककर) गुप्तचर।
बुद्धिसेन – मुझे अपने आचार्य से मिलवा दो। मेरा गणित वही बैठा सकते हैं।
भिक्षु – आचार्य से अभी भेंट नहीं हो सकती। वे पूजा पर हैं।
बुद्धिसेन – (धीरे से पास आकर) बहुत आवश्यक कार्य है। मुझे तो श्रेय मिलेगा ही, तुम्हारी भी भलाई होगी। तक्षशिला से लौटकर आये हुए राधागुप्त ने संदेश भेजा है। तभी तो मेरे जैसा प्रधान व्यक्ति इस कार्य के लिये नियुक्त हुआ है।
भिक्षु – अच्छा, अच्छा, चलो, हम आचार्य से पूजा के बाद तुम्हारी भेंट करा देंगे परंतु कोलाहल मत करना। यह नालंदा का महाविहार है, पाटलिपुत्र की मत्स्यशाला नहीं।
बुद्धिसेन – (जाते हुए) हाँ जी, हाँ जी, यह तो नालंदा की स्वर्णशाला है।
(सब जाते हैं)