ravindranath:Hindi ke darpan me
रात्रे उ प्रभाते
कालि मधूयामिनीते ज्योत्सनानिशीथे कुंज कानने शूखे
फेनिलोच्छल यौवनशूरा धरेछी तोमार मूखे ।
तुमि चेये मोर आँखि ‘परे
धीरे पात्र लयेछो करे,
हेसे करियाछो पान चुम्बनभरा सरस बिम्बाधरे
कालि मधूयामिनीते ज्योत्सनानिशीथे मधूर आवेशभरे ।
तव अवगुंठनखानि
आमि खूले फेलेछिनू टानि,
आमि केड़े रेखेछिनू वक्षे, तोमार कमल कोमल पानि ।
भावे निमीलित तव यूगल नयन, मूखे नाहि छिलो बानी ।
आमि शिथिल करिया पाश
खूले दियेछिनू केशराश
तव आनमित मूखखानि
शूखे थूयेछिनू बूके आनि-
तुमि सकल सोहाग सयेछिले, सखी, हासि मूकूलितमूखे
कालि मधूयामिनीते ज्योत्सना-निशीथे नवीनमिलनशूखे ।।
रात और प्रभात
कल ज्योत्स्ना निशि में मैंने मधु ढाल प्रमत्त करों से
बाँहों में भर तुम्हें पात्र था लगा दिया अधरों से
फिरा मदिर दृग-कोर
देखा मेरी ओर
भाँप लिया हो जैसे तुमने मेरे मन का चोर
प्याला ले निज कर में
रिक्त किया पलभर में
मंद-मंद हँस झुका लिया सिर हर्षित भावविभोर
मुक्त हुआ चन्द्रानन
खो लज्जाअवगुंठन
मन का सुख कह गयी तुम्हारी मौन मदभरी चितवन
मैंने कर में ले ली
झुक सुकुमार हथेली
खींच वक्ष में तुम्हें सुगन्धित खोला वेणीबंधन
कल कितनी थी मुदित प्रिये !
तुम मेरे मधुर स्वरों से
कल ज्योत्स्ना निशि में मैंने मधु ढाल प्रमत्त करों से
बाहों में भर तुम्हें पात्र था लगा दिया अधरों से
आजि निर्मलबाय शांत उषाय निर्जन नदीतीरे
स्नानअवसाने शुभ्रवसना चलियाछो धीरे धीरे ।
तुमि वाम करे लये साजि
कत तुलिछो पुष्पराजि,
दूरे देवालयतले उषार रागिनी बाँसिते उठिछे बाजि
एई निर्मलबाय शांत उषाय जाह्नवी तीरे आजि ।
देवी, तव शिंखिमूले लेखा
नव अरुणसिंदूररेखा
तव वाम बाहु बेड़ी शंखवलय तरून इंदुलेखा
ए कि मंगलमयी मूरति बिकाशि प्रभाते दियेछो देखा !
राते प्रेयसीर रूप धरि
तुमि एसेछो प्रानेश्वरी,
प्राते कखन देवीर बेशे
तुमि समूखे उदिले हेसे –
आमि संभ्रमभरे रयेछि दाँड़ाये दूरे अवनत शिरे
आजि निर्मलबाय शांत उषाय निर्जन नदीतीरे ।।
आज प्रभात समय तुम करके स्नान नदी के तट से
चली आ रही हो मंथरगति सज्जित उज्जवल पट से
बाएँ कर से थामे
विकच पुष्प डलिया में
सुनती मंदिर की वंशी-ध्वनि गुंजित पूर्व दिशा में
तम में रविकरलेखा
सिर सिंदूरी रेखा
शंखवलय मिस अर्ध चंद्र ज्यों लिपटा वाम भुजा में
रात प्रेयसी बन कर
आयी थी शय्या पर
देवी की-सी दिव्य विभा में आज बनी लोकोत्तर
देख रहा विस्मित बन
मैं यह छविपरिवर्तन
प्रिये ! रूप कैसा अद्भुत यह तुमने आज लिया धर !
दूर-दूर दिखती कितना भी देखूँ आज निकट से
आज प्रभात समय तुम करके स्नान नदी के तट से
चली आ रही हो मंथरगति सज्जित उज्ज्वल पट से