ravindranath:Hindi ke darpan me
उर्वशी
नह माता, नह कन्या, नह वधू, सूंदरी रूपसी,
हे नंदनवासिनी उर्वशी !
गोष्ठे जबे संध्या नामे श्रांत देहे स्वर्नांचल टानि
तूमि कोनो गृहप्रान्ते नाही ज्वालो संध्यादीपखानि
द्विधाय जड़ित पदे कंपवक्षे नम्रनेत्रपाते
स्मितहास्ये नाहि चलो सलज्जित वासरशय्याते
स्तब्ध अर्धराते
उषार उदय-सम अनवगुन्ठिता
तूमि अकुंठिता
वृन्तहीन पूष्पसम आपनाते आपनि विकशि
कबे तूमि फूटिले उर्वशी
आदिम वसंतप्राते उठेछिले मंथित सागरे
डान हाते सूधापात्र, विषभांड लये वाम करे
तरंगित महासिंधू मंत्रशांत भूजंगेर मतो
पड़ेछिलो पदप्रान्ते उच्छ्वसित फणा लक्ष शत
करि अवनत
कून्दशुभ्र नग्नकान्ति सूरेन्द्रवन्दिता
तूमि अनिंदिता
उर्वशी
न तो माता हो, न वधू हो, न कन्या हो तुम हे रूपसी
नंदनवन-वासिनी उर्वशी !
आँगन में झुकती जब संध्या, श्रांत-वदन, मुख पर स्वर्णाचल ताने दीपक जलाती नहीं कक्ष में किसीके तुम, फैल रहे तम से मुक्ति पाने द्विधा से जड़ित-पद, कम्पित-वक्ष, लाजभरी पलकों को झुकाकर जाती नहीं मंथर-गति, मंद मुस्कुराती हुई, किसीकी वासरशय्या पर
स्तब्ध आधी रात में बन-सँवर
उषा के उदय-सी अनवगुंठिता
तुम अकुंठिता
वृन्त-हीन पुष्प के समान कब आप अपने से ही विकसी
तुम अपूर्व सुन्दरी उर्वशी !
आदि वसंतप्रात में थी प्रकट हुई मंथित महासागर के तल से
दायें कर में सुधा-घट ले, बायें में घट भरा हलाहल से
क्षुब्ध महासिंधु मंत्र-कीलित भुजंग-तुल्य लक्ष-लक्ष फणों को पसारे
फुँफकारें भुला कर अपनी शांत हुआ, लोटता था चरणों में तुम्हारे
निकली जब मोहिनी रूप धारे
कुंद-शुभ्र, नग्नकान्ति, सुरेन्द्र-वन्दिता
तुम अनिंदिता
कोनो काले छिले ना कि मूकूलिका वालिकावयसि,
हे अनंतयौवना उर्वशी
आँधार पाथारतले कार घरे बसिया एकेला
मानिक मूकूता लये करेछिले शैशवेर खेला !
मणिदीपदीप्त कक्षे समूद्रेर कल्लोलसंगीते
अकलंक हास्यमूखे प्रवालपालंके घूमाइते
कार अंकटिते
जखनि जागिले विश्वे यौवनगठिता
पूर्णप्रस्फूटिता
यूग-यूगांतर होते तूमि शुधू विश्वेर प्रेयसी,
हे अपूर्वशोभना उर्वशी
मूनिगण ध्यान भाँगि देय पदे तपस्यार फल,
तोमारि कटाक्षपाते त्रिभुवनयौवन चंचल,
तोमार मदिर गंध अंधवायू बहे चारि भिते,
मधूमत्तभृंगसम मुग्ध कवि फिरे लुब्धचिते
उद्दाम संगीते
नूपूर गुंजरि जाऊ आकूलअंचला
विद्यूतचंचला
नहीं थी क्या तुम भी कभी मुकुलिका बालिका-वयसी
हे अनंत-यौवना उर्वशी !
गहन अतल के अँधेरे कक्ष में नीरव बालिका-सी बैठकर अकेली
माणिक-मोतियों से खेलती थी किसके घर में तुम बिना किसी संग या सहेली
मणि-दीपित कक्ष में प्रवाल-शय्या पर सुनती गीत सिंधु-ऊर्मियों के गाये
सोती थी भोली मुस्कान लिये रजनी में किसकी गोद में मुँह छिपाए
किसने भेद नृत्य के सिखाये
जगी जब तुम यौवन-मद-गठिता
पूर्णप्रस्फुटिता ?
युग-युगान्तर से अखिल विश्व की रही हो तुम्ही प्रेयसी
हे अपूर्व सुन्दरी उर्वशी !
मुनि-गण कर ध्यान भंग, अर्पण कर देते तुम्हे तपस्या के फल को
तुम्हारा कटाक्ष जगाता है यौवन-मद, चंचल कर देता है अचल को
तुम्हारी सुगंध लिये अंध वायु फिरती दिशाओं में गीत गाती
प्रेमभरी ध्वनियों से मधु-लुब्ध भ्रमर-तुल्य कवि को उन्मत्त है बनाती
चलती तुम छवि से मदमाती
नूपुर-शिंजित-चरण, आकुल-अंचला
विद्युत-चंचला
सूरसभातले जबे नृत्य करो पूलके उल्लसि,
हे बिलोलहिल्लोल उर्वशी,
छंदे-छंदे नाचि उठे सिंधूमाझे तरंगेर दल,
शस्यशीर्षे सिहरिया काँपि उठे धरार अंचल,
तव स्तनहार होते नभस्थले खसि पड़े तारा,
अकस्मात् पूरूषेर वक्षोमाझे चित्त आत्महारा —
नाचे रक्तधारा
दिगंते मेखला तव टूटे आचम्बिते
अयि असम्वृते
स्वर्गेर उदयाचले मूर्तिमती तूमि हे उषसि,
हे भूवनमोहिनी उर्वशी !
जगतेर अश्रुधारे धौत तव तनूर तनिमा,
त्रिलोकेर हृदिरक्त आँका तव चरनशोणिमा ;
मुक्तवेणी विवसने विकशित विश्व वासनार
अरविन्दमाझखाने पादपद्म रेखेछे तोमार
अति लघूभार —
अखिल मानसश्वर्गे अनंतरंगिनी
हे श्वप्नसंगिनी
सुर-सभा-तल में जब नृत्य करती पुलकभरी, हुलसी
हे कल्लोल-हिल्लोलित उर्वशी
छंदों पर तुम्हारे नाच उठता सिंधु-तरंगों का दल है
शत-शत शस्य-शीश डुला नाचता धरा का अंचल है
छूते स्तन-हार को तुम्हारे तारे टूट-टूट गिरते हैं गगन से
नाचती पुरुष-धमनियों में रक्तधारा तीव्र उठती झंकार जब चरण से
दिशाओं में उन्मद नर्तन से
मेखला के मोती हैं बिखरते
अयि असम्वृते !
उदयाचल पर स्वर्ग के तुम मूर्तिमती उषा बन हँसी
हे भुवन-मोहिनी उर्वशी !
जग के आँसुओं से धुली अंगों की तुम्हारे है मधुरिमा
जग ने रक्त से अपने रँगी है तुम्हारी पद-अरुणिमा
मुक्तवेणी विवसना तुम विश्व-वासना के कमल-दल पर
रखती हो कोमल पद अपने अति लघु-भार, स्निग्ध, सुन्दर
जग को निज रूप से विसुध कर
मानस-स्वर्ग की अंतर-रंगिनी
हे स्वप्न-संगिनी !
उई शुनो दिशे दिशे तोमा लागि काँदिछे क्रंदसी,
हे निष्ठूरा वधिरा उर्वशी !
आदियूग पूरातन ए जगते फिरिबे कि आर –
अतल अकूल होते सिक्तकेशे उठिबे आबार ?
प्रथम से तनूखानी देखा दिबे प्रथम प्रभाते
सर्वांग काँदिबे तव निखिलेर नयनआघाते
वारिविंदूपाते !
अकस्मात् महाम्बूधि अपूर्व संगीते
रबे तरंगिते
फिरिवे ना, फिरिवे ना — अस्त गेछे से गौरवशशि
अस्ताचलवासिनी उर्वशी !
ताई आजि धरातले वसंतेर आनंदउच्छवासे
कार चिरविरहेर दीर्घश्वास मिशे बहे आसे
पूर्णिमानिशीथे जबे दश दिके परिपूर्ण हासि
दूरस्मृति कोथा होते बाजाय व्याकुल-करा बाँशि
झरे अश्रुराशि
तबू आशा जेगे थाके प्राणेर क्रन्दने
अयि अबन्धने !
सुनो, रो रहा है जग तुम्हारे लिए, ओ अमरपुरी में बसी
निष्ठुर, वधिर, उर्वशी
फिरेगा वह आदियुग क्या फिर इस भूतल पर, जब मणिरत्नों से सँवारी
अतल अकूल में से उठती हुई सिक्तकेशी प्रतिमा दिखेगी फिर तुम्हारी
पहले जैसी ही फिर दिखोगी क्या जग को तुम सद्य:स्नात आती सिंधुतट से
जग की लुब्ध दृष्टि से विकल छिपाती हुई अपने अंगों को आर्द्र पट से
झाड़ वारि-बिंदु खुली लट से
अकस्मात् सागर की ध्वनि से अनुषंगिता,
होती तरंगिता
फिरेगा नहीं, फिरेगा नहीं, अस्त हो चुका है वह गौरव-शशि
अस्ताचल-वासिनी उर्वशी
इसीलिए तो आज भूतल पर गुंजित वसंत के भी आनंद-उल्लास में
जाने कैसी विरहव्यथा है छिपी करुणा की कसक भरी है साँस-साँस में
पूर्णिमा निशीथ में भी प्रेमियों की जोड़ी जब मद-मत्त प्रेम-गीत
गाती है
जाने किसकी स्मृतियाँ लिये दूरागत बाँसुरी की तान मन उन्मन बनाती है
आँसुओं की झड़ी लग जाती है
फिर भी आशा है, फिरोगी दुख हरने,
अयि अबन्धने !