roop ki dhoop
अस्मिता
1
हर नया फूल नयी गंध लिये आता है
हर भ्रमर नया प्रणय-बंध लिये आता है
नये विचार को रुचता न पुराना बाना
हर नया काव्य नये छंद लिये आता है
2
प्राण का धर्म ही साहित्य है, व्यवसाय नहीं
शुद्ध व्यक्तित्व का विभास, संप्रदाय नहीं
मोम-सा आप जलो तो प्रकाश फैलेगा
सिद्धि का और यहाँ दूसरा उपाय नहीं
3
किस कलाकार ने मुखर की है!
प्रिय मुझे छवि लहर-लहर की है
हर नयन अंश अंशुमाली का
हर अधर कला कलाधर की है
4
संघ कोई न सभा-मंच, सुहृद्-जाल नहीं
शिष्य, अनुशिष्य नहीं, फूलभरे थाल नहीं
गा रहा मैं, न जहाँ एक भी सुननेवाला
सुर नहीं, साज नहीं, छंद नहीं, ताल नहीं
5
साज कोई कहीं न है आलाप
न सभासद्, न तो मृदंग, न थाप
निष्प्रतिध्वनि मरण-पुरी है यह
गा रहा आप, सुन रहा हूँ आप
6
मैंने तो यही योग साधा है
अपने को कहीं नहीं बाँधा है
आधा तो बिखर गया सजने में
राग अवशिष्ट अभी आधा है
7
एक मन विमुग्ध रहा सपनों के मोद में
एक मन भटकता रहा पथ के विनोद में
अर्थ और काम में अधीर फिरा मन एक ,
पर था निश्चित एक मन तेरी गोद में
8
काँटों को फूल, राज को ही रजत मानता
हार-हारकर भी नये युद्ध सदा ठानता
माना मन एक चूर-चूर पड़ा धरती पर
किंतु एक मन है जो पराजय न जानता
9
हो गया भग्न रूप का दर्पन
कल्पना ने छिपा लिया आनन
द्वार पर ज्ञान ने धरे जो पाँव
खोल खिड़की निकल गया यौवन
10
गीतों को देख कभी हँसे, कभी रोये
बालू पर लिखे, लहर-लहर में पिरोये
प्रतिध्वनि लौटी न कभी जीवन के सुर की
निशि में जो स्वप्न बुने, दिन में सब खोये
11
चाँदनी की कहीं सरकार नहीं होती है
फूल के हाथ में तलवार नहीं होती है
जीत होती न कभी युद्ध के मैदानों में
प्यार की हार कभी हार नहीं होती है
12
हर सुमन में सुवास मेरा है
हर किरण में प्रकाश मेरा है
मैं भला या बुरा कहूँ किसको!
हर हृदय में निवास मेरा है
13
तार कोई हो, राग एक ही है
दीप कितने हों, आग एक ही है
देह के हों भले हजारों भाग
चेतना का विभाग एक ही है
14
हर हृदय में हुलास मेरा है
हर कली में विकास मेरा है
स्नेह बन सृष्टि में समाया मैं
दीप कोई, प्रकाश मेरा है
15
हर पिकी मधुमास में गाती नहीं है
हर लहर तट तक पहुँच पाती नहीं है
हर कली को भ्रमर का चुंबन न मिलता
हर चकोरी चाँद को भाती नहीं है
16
तारे हजार व्योमतले आते हैं
आने को सभी बुरे-भले, आते हैं
सूरज को भी मिल जाय उजाला जिनसे
कोई कभी ऐसे भी चले आते हैं
17
आपका सनेह क्या है डूबते को तिनका है
आशा की किरण है, सहारा दुर्दिन का है
और किसी कामना की चर्चा चलाये कौन
जब सहा जाता नहीं बोझ इसी ऋण का है!
18
आयु नाप डाली एक बिंदु के लिये
जीवन में मरे, इतिहास में जिये
अपने कुटीर में अँधेरा ही रहा
व्योम पर हजारों दिये जगमगा दिये
19
मिट्टी की मोहमयी माया है इसकी
कुश-कंटकों से भरी छाया है इसकी
फूल यह कैसे वीणापाणि पर चढ़ा दूँ मैं।
धूल से सनी हुई काया है इसकी
20
अधलिखे गीत कुछ मिटे-से चित्र
मैं यही और यही मेरा, मित्र!
शब्द दो-चार सुवासित करने
आयु भर का निचोड़ डाला इत्र
21
हरे-भरे मधुवन का दाह कर
अनजानी, अनदेखी चाह पर
एक अनजाने की प्रतीक्षा में
जीवन भर खड़े रहे राह पर
22
शर-वृष्टि सतत काल की सिर पर होती
रथ पंक-ग्रसित, वेदना गुरुतर होती
निःशस्त्र खड़ा कर्ण-सा समर में मैं
इस हार पे सौ जीत निछावर होती
23
यह भास-कालिदास की व्यथा से बड़ी
तुलसी की जलन सामने इसके फुलझड़ी
अर्जुन मैं कुरुक्षेत्र में बिना रथ का
गांडीव नहीं हाथ में जिसके हथकड़ी
24
यों तो अंबर से भी विस्तृत है एक व्यक्ति की भूख
कभी न थी मुझे सम्मान की या शक्ति की भूख
इस उपेक्षा की अनावृष्टिभरे जीवन में
जग ही जाती है कभी आपकी अनुरक्ति की भूख
25
सिसिफस-सा दिन की शिला को मैं ढकेल कर
चोटी तक जभी पहुँचाता कष्ट झेलकर
लुढ़क वहीं की वहीं आती वह प्रात को
सोता मैं निरर्थ नित्य खेल यही खेलकर
26
तिनके-सा आँधी में तनकर ढह गया हूँ मैं
सागर के ज्वार-सा उफनकर बह गया हूँ मैं
बनना तो चाहा था विजय-स्तंभ वाणी का
दंभ का समाधिस्थल बनकर रह गया हूँ मैं
27
घूँट मैं विष का पिये जाता हूँ
विश्व को अमृत दिये जाता हूँ
अब न कोई कहीं उदास रहे
सबका दुर्भाग्य लिये जाता हूँ
28
वाद क्या है? विवाद क्या होगा?
आज क्या? युगों बाद क्या होगा?
मुँह लिया मोड़ सभी से मैंने
हर्ष मुझको विषाद क्या होगा!
29
गये सभी जिनके सँग खेला हूँ
एक ज्यों उठा हुआ मेला हूँ
कोई पथ-बंधु मिल नहीं पाता
भीड़ के बीच मैं अकेला हूँ
30
कितने सुख-सपनों को जोड़कर बनाया है
यश-वैभव सबसे मुँह मोड़कर बनाया है
काल के पटल पर यह ताजमहल गीतों का
मैंने निज को ही तोड़-तोड़कर बनाया है
31
एक फूल लपटों से निकालकर लाया हूँ
एक दीप आँधी में सँभालकर लाया हूँ
दग्ध मरु-प्रांतर में एक सुनहला शाद्वल
नाव एक भँवर से उछालकर लाया हूँ.
32
तुम पियो अमृत, तुम्हें दोष नहीं,
पी सकूँ गरल, आशुतोष नहीं
सिंधु मथ रहे अंग श्लथ जिसके
वासुकी बना, मुझे होश नहीं
33
सुकरात की तरह उसे जीना आ जाय
हँस-हँसके घूँट जहर का पीना आ जाय
पगुराती हुई महिष-मंडली के बीच
कोई जो लिये काव्य की वीणा आ जाय
34
शंका-अविश्वास का अँधेरा और जम गया है
आशा का उठाया हुआ पाँव जैसे थम गया है
बढ़ती ही जा रही है विकल प्रतीक्षा की रात
लक्ष्य तो वही है किंतु साहस हो कम गया है
35
फूल थे पर नहीं खिलने के लिये आये थे
अनदिखे डाल पर हिलने के लिये आये थे
और ही थे जो दुलारे गये, पूजे भी गये
हम तो बस धूल में मिलने के लिये आये थे
३6
मन रे! विश्वास कर, प्रतीक्षा कर, वहन कर
अनुक्षण अनुचिंतन कर, अनुभव कर, ग्रहण कर
गहन तम-भाल से उठेगी भ्रम-दहन शिखा
आस्था रख, आस्था रख, सहन कर, सहन कर
37
अनबोले मन के दुख मन में ही बीत गये
कितने ही वर्षा-हिम-ताप-शिशिर-शीत गये
वास्तविकताओं ने रुलाया तो बहुत, किंतु
हार-हारकर भी हम हारे नहीं, जीत गये
38
जीवन को सहज-सहज जिया है
प्राप्त का विरोध नहीं किया है
फूलों से हार गूँथ डाले हैं
काँटों से घर घेर लिया है
39
आयु निःशेष हुई प्रीति की प्रतीक्षा में
अधलिखे पृष्ठ रहे विश्व की परीक्षा में
कवि न बना, न सही, काव्य बन गया हूँ मैं
स्वयं को आज दिये जा रहा समीक्षा में
40
एक होकर अनेक दिखता है
क्या कहूँ, कौन वास्तविकता है!
मैं न लिख रहा काव्य को अपने
काव्य मेरा मुझे ही लिखता है
41
जीवन ही भोगा है, जीवन ही जिया है
जीवन ही दिया और जीवन ही लिया है
त्तन-मन तो तोल दिये काल की तुला पर किंतु
जीवन का मैंने कभी मोल नहीं किया है
42
मेरा सहयात्री यह अति ही विचित्र है
जान सका मैं न इसे, शत्रु है कि मित्र है
मेरे हर कार्य में विरुद्ध सदा मुझसे ही
उलट कर टाँगा हुआ मेरा एक चित्र है
43
शून्य का घेरा बढ़ा जाता है
मन का अँधेरा बढ़ा जाता है
मैं कहीं आप ही न खो जाऊँ
प्यार तो तेरा बढ़ा जाता है!
44
साध का छोर धरे बैठे हैं
स्वप्न में चोर धरे बैठे हैं
कट चुकी है पतंग तो कब की
किंतु हम डोर धरे बैठे हैं
45
दो शक्तियाँ विरोधी मेरे दोनों ओर
विपरीत दिशाओं में खींच॑तीं हैं डोर
मैं बीच मैं टँगा हुआ त्रिशंकु-सदृश
छू रहा कभी भू का, कभी नभ का छोर
46
दुःख कुछ हँसके झेलता हूँ मैं
कुछ स्वरों में उड़ेलता हूँ मैं
खेलती जैसे लहर सागर में
गोद में उसकी खेलता हूँ मैं
47
विद्ध शर से अपंख बाज हूँ मैं
अनसुना, अनकहा, अकाज हूँ मैं
त्यक्त, निःशक्त, बीच सागर का
भग्न, जलता हुआ जहाज हूँ मैं
48
श्याम घन-मध्य चंद्र-लेखा है
क्षीण-सी एक रजत-रेखा है
इस अँधेरे, उदास जीवन में
ज्यों तुम्हारा परस अदेखा है
49
हर दिशा-द्वार जुड़ा पाता हूँ
साथ पल-भर न छुड़ा पाता हूँ
भाग्य पीछे जयंत के शर-सा
मैं जिधर उड़ा-उड़ा जाता हूँ
50
भेड़िये, रीछ और चीते हैं
जो सदा मनुज-रक्त पीते हैं
इस बयाबान घोर वन में हम
क्या कहें किस प्रकार जीते हैं!
51
ऐसी घनघोर घटाओं से घिरा है आकाश
नहीं बिजली, न तो दीपक, न जुगनुओं का प्रकाश
ऐसे में, हाय! कहाँ जायें! किधर जायें हम!
कोई भी अपना-पराया, न कहीं दूर, न पास
52
मैं किनारे से अड़ा था कि किनारा रूठा
मैं सहारे को बढ़ा था कि सहारा छूटा
भाग्य यह मेरा पहुँचता गया पहले मुझसे
मैं सितारे पे चढ़ा था कि सितारा टूटा
53
टूटता है पर्वत तो आग बन जाता है
सिंधु टूटते ही झाग-झाग बन जाता है
काल के कुटिल क्रूर चरणों को ठोकर से
व्यक्ति टूटता है तो विराग बन जाता है
54
आत्म-विश्वास को बिखरते हुए देखा है!
अपने को आपसे ही डरते हुए देखा है।
मरते तो देखे होंगे मानव अनेक बार
मानव का मन भी कभी मरते हुए देखा है!
55
जीत होती नहीं भलाई की
नींव हिलती नहीं बुराई की
न्याय का ढोल पीटनेवाले!
क्यों भला अपनी जग-हँसाई की!
56
दुःखों से दले, काल-कर से कुचले गये
चूके हर चाल, हर क्षण ही छले गये
जीवन के रथ को परंतु हाँकता था कौन?
हार-हारकर भी हम जीतते चले गये
57
एक क्षण फूल-सा निखरने दो
एक क्षण धूल में बिखरने दो
प्यार यह खूब, कभी मुँह चूमो
और असहाय कभी मरने दो
58
गेय क्या और क्या अगेय, तुम्हीं जानते हो
देय क्या है मुझे अदेय, तुम्हीं जानते हो
जानता मैं न भले और बुरे का अंतर
‘प्रेय क्या मेरे लिये श्रेय’, तुम्हीं जानते हो
59
कोई कहता है विश्व कर्ममयी धारा है
ज्ञान कहता है कोई भोग का किनारा है
विरह-व्यथा से उगा काल के कपोलों पर
लगता मुझे तो यह अश्रु एक खारा है
60
तड़ित-प्रवाह कि टूटा हुआ तारा, जीवन
ओस की बूँद, बिखरता हुआ पारा, जीवन
मैं इसे छू भी न पाता हूँ, पकड़ लूँ कैसे !
अन्य का है, न तो मेरा न तुम्हारा, जीवन
61
धार में हैं जो उन्हें दूर किनारा, जीवन
जो किनारे से लगे हैं उन्हें धारा, जीवन
एक मृगतृष्णा जो पल भर भी न देती है विराम
एक परिणाम-रहित दौड़ है सारा जीवन
62
ओस बनकर ढुलक गया जीवन
मधुकलश-सा छलक गया जीवन
आयु के अंत में रहा जो शेष
बस वही अंत तक गया जीवन
63
जीवन का लक्ष्य अंतहीन चलना ही है
सूरज और चाँद-सा अकेले जलना ही है
इस महामरु की अनंत, शून्य रिक्तता में
दिखती जो छाँह कहीं पर तो छलना ही है
64
झूठी मृगतृष्णा में भटक रहा रीता
होंठों से पात्र जो लगा है क्यों न पीता!
क्षण-क्षण का जीवन ही जीवन का सुख है
मधु तो मधु ही होगा, कड़वा क्या तीता!
65
दुख का अँधेरा यदि, सुख का उजाला भी
आँखों में आँसू और अधरों पर हाला भी
पीड़ा दी तुमने किंतु प्यार भी अशेष दिया
पाँवों में बेड़ीं यदि, ग्रीवा में माला भी
66
जी तो करता है भू-गगन को दबोच लूँ
तारे क्या विचारे, चाँद-सूरज को नोच लूँ
मेरा ही प्रभुत्व रहे सृष्टि में सभी पर, किंतु
आप मैं रहूँगा कितने दिन, जरा सोच लूँ
67
घेरती गयी है मुझे लौहमयी कारा
छिद्र नहीं क्षुद्र भी प्रकाश का सहारा
ठोस अंधकार, चौमुखी ज्यों शिला मन पर
चाँद बड़ी बात यहाँ एक भी न तारा
68
हर सफलता बनी विफलता है
भाग्य मुझको सदैव छलता है
दूर अब भी वहीं खड़े हैं शिखर
और यह सूर्य इधर ढलता है
69
एक अश्रुत सितार सुनता हूँ
शून्य के आर-पार सुनता हूँ
नयी धरती बुला रही है मुझे
मैं गगन की पुकार सुनता हूँ
70
फूल बोला – ‘वसंत-श्री हूँ मैं’
कोकिला ने कहा- ‘बड़ी हूँ मैं’
धूल पतझड़ की उठी इठलाती–
‘देख, सब ओर उड़ रही हूँ मैं”
71
एक पदचाप सुन रहा हूँ मैं
आप को आप सुन रहा हूँ मैं
चेतना खोल रही है घुँघरू
रुक रही थाप, सुन रहा हूँ में
72
भग्न आलाप रुके जाते हैं
सुर सभी काँप, रुके जाते हैं
किस अगम द्वार पर खड़ा हूँ मैं!
आप पदचाप रुके जाते हैं।
73
दर्पण में कोई और है, मैं नहीं हूँ
इस तन में कोई और है, मैं नहीं हूँ
आवरण में कोई और है, मैं नहीं हूँ
मरे, जनमे, कोई और है, मैं नहीं हूँ
74
प्रकृति जिसको फूल का वरदान देती है
धूल की चादर उसी पर तान देती है
जन्म सोने की घड़ी है, मृत्यु जगने की घड़ी
बीच में लघु स्वप्न का व्यवधान देती है
75
मृत्यु पथ-अंत नहीं, सीमा है
राग अवरुद्ध नहीं, धीमा है
चेतना के प्रगल्भ शिशुओं की
यह समझ लो कि दूसरी माँ है
76
कोई तो विराट् इस काव्य का प्रणेता है
अक्षय विभा जो अणुओं में भर देता है
मृत्यु का नहीं है अस्तित्व कहीं जीवन में
मानता नहीं पर मुझमें जो नचिकेता है
77
जीवन का देख महाशोक, काँप जाता हूँ
सोच, मुझे काल देगा रोक, काँप जाता हूँ
आते ही विचार किंतु अंश हूँ अनंतता का
तीन ही पगों में तीनों लोक नाप जाता हूँ
78
गोद में उठा के बिजलियों ने मुझे रात में
बादलों की सेज पर सुलाया हिमपात में
नील मधु-पात्र उर्वशी ने दिया भरके
एक मधुस्पर्श लगा शीतल-सा गात में
79
कोई भी साज न सामान हो सफर के लिए
पाँवों के नीचे धवा और गगन सर के लिए
वस्तुएँ जो भी यहाँ की हैं, यहीं छोड़ उन्हें
जैसें आये थे, उसी भाँति चलो घर के लिए
80
जो साँस आ रही है ग़नीमत समझो
हर लौट रहे ज्वार की कीमत समझो
आयी जो बन सँवरके जिंदगी की दुल्हन
कल और के सँग होगी, निजी मत समझो
81
किसीने मोम के पुतलों का एक खेल किया
बना-बनाके उन्हें आग में ढकेल दिया
जिन्हें गुलाब की पँखुरी से रगड़ लगती थी
उन्होंने शीश पे लकड़ों का बोझ झेल लिया
82
जिंदगी, मौत, सगी बहनें हैं
मुझ पे दोनों के ही उलहने हैं
जिंदगी मिली, प्यार खुलके किया
मिल गयी मौत तो क्या कहने हैं।
83
आँख को मूँद तनिक देख तो लूँ!
साँस को रूँध तनिक देख तो लूँ!
मृत्यु का स्वन-लोक कैसा है
शून्य में कूद तनिक देख तो लूँ!
84
कुंडी को खटखटाके जरा देख तो लूँ!
पट थोड़ा-सा हटाके जरा देख तो लूँ!
क्या रूप कि संसार मरा जाता है!
शीशे में मुँह सटाके जरा देख तो लूँ!
85
आयु का प्रदीप ज्योतिहीन हुआ जाता है
जीवन का सूत्र सतत क्षीण हुआ जाता है
साँस फूँक-फूँक हम फुलाते ही रहे थे जिसे
कंदुक वह शून्य में विलीन हुआ जाता है
86
क्या दिया जीवन मुझे तूने कि तेरा हो रहूँ मैं!
रह गया क्या शेष रहने के लिये अब, जो रहूँ मैं!
यह दुपहरी की सघन तरु-छाँह, ये ठंडी हवायें
जी यही करता कि अब चादर बिछा कर सो रहूँ मैं
87
जितने थे द्वार सभी पार कर आया मैं
पुण्य और पाप क्षार-क्षार कर आया मैं
तेरी करुणा की किरणों में तैरने के लिए
मन के परिधान सब उतार कर आया मैं
88
जो कुछ जहाँ का था वहीं पर छोड़ आया हूँ
मिट्टी के घरौंदे सभी तोड़-फोड़ आया हूँ
खेल सभी खेल, थका हारा हुआ साँझ हुए
भूला शिशु जैसे जननी की क्रोड आया हूँ
89
यह निठुर व्योम भला चीख सुनेगा किसकी
एक भी नीड़ न चहका कि चढ़ी भौं जिसकी!
दो घड़ी बस जहाँ वसंत, सदा को पतझड़
फूल के अश्रु कहीं भग्न कली की सिसकी
90
काल का शून्य तम-अयन है नभ
चेतना का अमृत शयन है नभ
जोहता जो अनंत के पथ को
किसी अनादि का नयन है नभ