roop ki dhoop
कुँवारी दृष्टि
1
नेत्र विष, अमृत हैं, शराब भी हैं
मधुप हैं, चाँद हैं, गुलाब भी हैं
कौन इनसे न मर, जिये, झूमे
मौन हैं, प्रश्न हैं, जवाब भी हैं
2
आपसे नयन क्या मिले पल भर
एक जीवन लुटा दिया मैंने
दीप घर में न जल सका, लेकिन
दीप से घर जला लिया मैंने
3
कहीं ऐसा न हो कि मन की बात
आप मत कहें, दृष्टि कह जाये
प्रेम तो एक पूर्णता पा ले
किंतु जीवन अपूर्ण रह जाये
4
नयन उठाके उसने देख लिया
यों समझिए तो कोई बात न थी
जग उठा हृदय आँख मलता हुआ
कहीं पहले की तरह रात न थी
5
हारती गयी पर न हारी है
हार में भी बड़ी ही प्यारी है
भाँवरें भर रही सतत फिर भी
रूप की दृष्टि चिर-कुँवारी है
6
हर तरह आज़माके देख लिया
पास से पास आके देख लिया
दिल न मिलता तो कुछ नहीं मिलता
हमने आँखें मिलाके देख लिया
7
मुक्तिफल कभी तो कभी भव-कूप
वंदिनी कभी, कभी विजयी भूप
प्यार में मरूँ भी जिऊँ भी कभी
हैं उन आँखों में दो विरोधी रूप
8
दृष्टि तिरछी है और सीधी भी
स्नेह से बिंधी भी, अबींधी भी
सलज भी ढीठ, मौन भी मुखरित
जग रही और कुछ उनींदी भी
9
आपके नेत्र नहीं एक निमंत्रण-सा है
जो किसी दीर्घ प्रतीक्षा के बाद आ जाये
ज्यों अँधेरे में कहीं ज्योति दिये की दिख जाय
ज्यों किसी भूले हुए स्वप्न की याद आ जाये
10
ज्यों छलक जाय भरा-पात्र नयी दुलहन से
सुहागरात का आईना झलमला जाये
डायरी जैसे किसी मुग्ध-हदय तरुणी की
ज्यों प्रणय-पत्र किसी और का हाथ आ जाये
11
पात्र मधु के न नयन, ढाल पिला देते भी
प्यास घटती न सुरा की, न सुरा घटती है
मैं सतत मुग्ध तृषाबंत इधर फिरता हूँ
दृष्टि छलछल कि उधर बूँद नहीं बँटती है