sab kuchh krishnarpanam

कोई जा रहा है सवेरे-सवेरे

सकुचता, सिहरता, सहमता, लजाता
खुद अपनी ही आँखों से आँखें चुराता
उतर चाँद ज्यों झील में झिलमिलाता
नज़र आ रहा है सवेरे-सवेरे

ये आँखों की अनबूझ, अनमोल भाषा
पलटकर ये फिर लौटने का दिलासा
ये बिंदी मिटी-सी, ये काजल पुँछा-सा
गजब ढा रहा है सवेरे-सवेरे

नज़र अब भी सपनों में खोयी हुई है
हँसी ज्यों शहद में डुबोई हुई है
कोई तान होठों पे सोयी हुई है
जिसे गा रहा है सवेरे-सवेरे
कोई जा रहा है सवेरे-सवेरे

March 85