sab kuchh krishnarpanam

हमारा प्यार अधूरा है

कितना भी बाँहों में बाँधा
मिलन किंतु रहता है आधा
जाने यह कैसी है बाधा!
लगता है जैसे छवि का श्रृंगार अधूरा है

नित्य नये वन में जाता हूँ
नित्य नयी कलियाँ लाता हूँ
हार नये नित पहनाता हूँ
पर मेरे अंतर का हर उपहार अधूरा है

कुछ भी हाथ नहीं आता है
रूप बदलता ही जाता है
चिर-अतृप्त मन अकुलाता है
सच कह दूँ तो यह सारा संसार अधूरा हैं

हमारा प्यार अधूरा है