sab kuchh krishnarpanam

हाथ से साज़ नहीं छोड़ा है
यद्यपि एक-एक कर मैंने तारों को तोड़ा है

पिछले पहर रात के गाता
माना, निज को हूँ दुहराता
राग बेसुरा होता जाता
पर मैंने वर्णों को तेरे चरणों से जोड़ा है

जब भी लोग तुझे पूजेंगे
मेरे स्वर मन में गूँजेंगे
धुन यह सहज न मिटने देंगे
तूँबे का क्या! वह तो कितनी बार गया फोड़ा है

मंदिर शून्य, पुजारी सोये
पर मैंने पल व्यर्थ न खोये
सारे बिखरे भाव सँजोए
गीत-हार पहनाकर तुझको, घर को रुख़ मोड़ा है

हाथ से साज़ नहीं छोड़ा है
यद्यपि एक-एक कर मैंने तारों को तोड़ा है

July 85