seepi rachit ret
चले गये वे
चले गये वे दिन छिपने पर किरणों-से जग के उस पार
वे वासंती-कुसुम ले गया जिन्हें वसंत-पवन ही तोड़।
चले गये वे जैसे वीणा के स्थिर होने पर झंकार,
स्नेह-रहित दीपक की लौ वे लौटे शून्य गेह को छोड़।
वे अब पहले कही कथा-से, देखे हुए दृश्य-से लीन
काल-गर्भ में, बीती हुई आयु-से, उनका चिह्न नहीं
शेष कहीं भी, वे अतीत युग की जड़ प्रथा-सदृश आसीन
केवल वृद्ध जनों की वार्ता में, सुन पड़ते कभी, कहीं।
वे पदचिह्न विश्व-जलनिधि-त्तट पर के जिनको मिटा चुके
उर्मि-अनिल, वे ज्यों निशीथ के नाटक-पात्रों का समुदाय,
एक-एक कर चले गये जो तारावलि से बिना रुके
ऊषाकाल में, कभी न फिरने को मेरे आगे से, हाय!
चले गये वे परिचित मुखड़े मैं आया था जिनके बीच,
मुझको भी तो दूर गगन में कोई आज रहा है खींच।
1941