seepi rachit ret
ठहरो मेरे वर्तमान
समा रहा प्रतिपल अतीत में गल-गलकर भविष्य मेरा,
दिन-दिन बढ़ता वयस, अवधि जग में रहने की होती कम।
एक-एककर टूट रहा साँसों की कड़ियों का घेरा,
छूट रहा बारी-बारी स्वजनों, सुहदों का सुख-संगम।
कुछ सपने हैं, कुछ स्मृतियाँ, दोनों में जीवन बँटा हुआ,
वर्तमान तो अनुभव करने के पहले ही मिट जाता
विद्युत-द्युति-सा, पलकों का अंचल भी जिसने नहीं छुआ,
भावी-जननी से अतीत के शिशु का जोड़ सुदृढ़ नाता।
दिन काटे थे देख-देख जिस दिन के, सुखद मधुर सपने,
वह आया, सुख-छाया-सा, मैं समझ न पाया, ‘ क्या लाया ?’
और चला द्रुत गया छोड़ स्मृति-कोमल चरण-चिह्न अपने
खड़ा अतीत-द्वार पर मुझको अब फिर करता ललचाया।
ठहरो, मेरे वर्तमान! मैं तुम्हें प्यार तो कर पाऊँ,
अब भविष्य थे, अब अतीत हो, हाय | रूप क्या धर पाऊँ।
1941