seepi rachit ret

अनुताप

आह! व्यर्थ सोचना, हुआ जो कभी, हुआ होता न कभी
मधुर अधर, नासिका, चिबुक, रक्ताभ कपोलों के ऊपर
साँसों से अंकित, दुर्बल मन! मुड़ न गये क्‍यों हाय! तभी
उस ज्वाला से! प्रेम-नाट्य ये आज सभी छलना भू पर।

हुआ न कुछ भी जैसे स्मिति निर्दोष लिये तुम डोल रही
प्रात-अनिल-सी; कौन कहेगा क्षण-क्षण कितने झंझावात
उठते हैं इस मन में! अब भी तो वैसे ही बोल रही
पुलकित हँस-हँस कर तुम मुझसे, भौंहों में करती-सी घात।

दुर्बलता से या हठ से तुम फिर न सकी तो मैं ही आज
लौट चला जाऊँगा इस सुनसान कुंज से दिनकर की
अंतिम किरण-समान, भुलाकर छाया-सी काया का साज,
उस झटके से खुल जायेगी स्नेह-गाँठ यह अंतर की।

तुम तो करुणामय हो लेकिन मैं निष्ठुर बनकर कैसे
छलता रहूँ तुम्हें अब भी मन की दुर्बलता से ऐसे!

1941