seepi rachit ret
प्रेम
कोई हँसे प्रेम को मानव की दुर्बलता कह-कहकर
मैं तो मानव-जीवन की सार्थकता उसे मानता हूँ।
बुद्बुद-से उठ-गिरनेवाले अन्य भाव जितने भू पर
थोथापन कितना है उनमें, अच्छी तरह जानता हूँ।
भूल समाज-भवन को जन-जन जिसके विविध उपकरण हैं.
ऐकांतिक जीवन पर करता राज्य अकेला प्रेम सदा।
मोह, प्रीति, उन्माद सभी ये उसके रूप मनहरण हैं
जो झकझोर दिया करते हैं मानव-मन को यदा-कदा।
रहती है वासना प्रेम में छिपी गंध ज्यों पाटल में,
प्रेमी तो बस मधुप, शेष जग दूर खड़ा दर्शक जैसा।
अज्ञ निरे, कहते जो, ‘ईर्ष्या-कंटक क्यों इसके तल में?’
खिला न जो काँटों पर मुझको दिखला दो गुलाब ऐसा।
कुछ देवत्व-अंश इसमें कुछ भाग मिला है नरता का,
प्रेम, यही तो माप-चिह्न हैं मानव की ईश्वरता का।
1941