seepi rachit ret
वे आँखें
जादू हैं कुछ परदे में उन डोरेवाली आँखों के
सम्मोहन या वशीकरण, जो रख लेती हैं बाँध हृदय
ज्यों मणि को शतफण भुजंगिनी, लाखों जलचर-पाँखों के
बनें प्रवाल-कुंज को जैसे ऊर्मि-पुंज आवर्तनमय।
नयन नहीं दो चंद्रकांत मणियाँ हैं, शशि में होने से
जिनकी हिम-किरणें निशि-दिन शत-शत निर्झर-धाराओं-सी
समा रही हैं मेरे मानस-मरु में कोने-कोने से,
बिछा सघन हरियाली उस पर, तम-पथ पर ताराओं-सी।
कठिन राज-आज्ञा से भी उनका उल्लंघन जो कहते
भ्रू-इंगित से, ‘उठ कर आओ’, जैसे दूर देश को क्रीत
वृद्ध दास को सपने में आ मातृ-भूमि की स्मृति, रहते
जिससे दूर, आयु से जिसके वर्ष चुके कुछ ही कम बीत।
नित आंदोलित मेरा जीवन काली रात समान अधीर,
वे दो नयन चमकते मन में तारों से तम-पट को चीर।
1941