seepi rachit ret

उनकी हँसी

इंद्रासन पर ज्यों मुझको ले जाकर बैठा देती है
एक हँसी उनकी, जाता मैं बाहर देख-काल सब के
साधक-सा ध्यानस्थ, हृदय लगता ज्यों वापित खेती है,
अंकुर-से उगते जिसमें संस्कार न जाने कब-कब के।

उभय आत्माओं का परिचय लगता युग-युग से विकसित
होता आया हो जैसे, यह जीवन तो केवल क्षण एक
कितने क्षण-से बीत गये जीवन जिसके पहले, संचित
अभी बीतने को, परिचित यह हँसी देखते, जन्म अनेक।

तब मैं सोचा करता हूँ यह अरुण कमलिनी के जैसा
बना न, हाय! क्रुद्ध होने को मंदस्मित मुख-चंद्र अमंद
यह न कल्पना भी कर पाता कैसे मधुर रूप ऐसा
कभी वक्र हो स्नेह-मिलन के स्वर को भी कर देगा बंद।

तब मुँहदेखा प्रेम न लगता प्राणों का वह व्यंजक हास,
नहीं विरोधी भाव फटक पाते हैं पलभर जिसके पास।

1941