shabdon se pare

जीवन तो ताशों का घर है, बनते-बनते ढहता जाता
जीवन तो तितली का पर है, पल भर भी न पकड़ में आता
जीवन ऐसा लेख कि लेखक की ही नहीं समझ में आता
ज्यों-ज्यों आगे लिखता हूँ मैं त्यों-त्यों पीछे मिटता जाता

इसे सजाये कोई कितना ऊपर से परिधान पहनकर
होता जाता है अधिकाधिक निरावरण इसका अंतरतर

1962