shabdon se pare
रूप न राग न रस की वर्षा, त्याग न तपस-विभायें
इन गीतों में क्या कुछ भर दूँ, जो तुमको भा जाएँ!
जीर्ण-शीर्ण मानस के तट पर
मोती नहीं, न जल ही घट भर
गिरते टूट कगारे कटकर
हंस कहाँ से आयें!
मैंने फिर भी मोह न त्यागा
अम्बर से शशि को ही माँगा
बुनता रहा अहम् का धागा
अपने दायें-बायें
मुकुर हाथ से शाशिमय छूटा
कल्पित भाव-सूत्र भी टूटा
ठूँठ खड़ा ज्यों दव का लूटा
नभ को किये भुजायें
रूप न राग न रस की वर्षा, त्याग न तपस-विभायें
इन गीतों में क्या कुछ भर दूँ, जो तुमको भा जाएँ!
1964