tilak kare raghuveer
कभी यदि ऐसा देखो कोई
शिशु-सा खेल-कूद में जिसने घर की सुध-बुध खोयी
था शासन करने को भेजा
जिसे भाग्य ने राज सहेजा
पर जिस दुर्मति ने पुर में जा
जूठी पत्तल धोयी
तो तुम याद मुझे कर लेना
यह कृति दिखा, उसे कह देना
‘मूर्ख! न सज कागज़ की सेना
जगा चेतना सोयी’
भूल गया क्यों प्रण जो ठाने!
ठगा तुझे भी मृगतृष्णा ने!
गँवा न दे वह निधि अनजाने
जो चिर-काल-सँजोयी
कभी यदि ऐसा देखो कोई
शिशु-सा खेल-कूद में जिसने घर की सुध-बुध खोयी