tilak kare raghuveer

हुए सब एक-एक कर न्यारे
बारी-बारी से उठकर सब घर की ओर सिधारे

रात यहाँ जो धूम मची थी
मित्रों ने जो सभा रची थी
प्रात न उसकी झलक बची थी

दीप बुझे थे सारे

नित नव रसिकों के दल आते
ठाठ वही फिर-फिर रच जाते
पर न कभी उनमें दिख पाते

बिछुड़े बंधु हमारे

क्या वे महाशून्य में खोये?
या हैं कहीं शान्ति से सोये?
या मिलने की आस सँजोये?

नया वेश हैं धारे?

हुए सब एक-एक कर न्यारे
बारी-बारी से उठकर सब घर की ओर सिधारे