tilak kare raghuveer

तूने कितना प्रेम निभाया!
कहाँ-कहाँ ले फिरी मुझे तू, ओ मेरी कृशकाया!

दिखीं चतुर्दिक दाढ़ें यम की
पर तूने निज चाल न कम की
मुँह पर स्मिति की लौ ही चमकी

कितना भी तम छाया

तुझे छोड़कर जाने के क्षण
क्यों न विकल होगा मेरा मन!
इस जग में तेरे ही कारण

मैंने सब कुछ पाया

जब तू साथ न दे पायेगी
यह चेतना कहाँ जायेगी?
किस अनंत में मँडरायेगी

इन प्राणों की छाया?

तूने कितना प्रेम निभाया!
कहाँ-कहाँ ले फिरी मुझे तू, ओ मेरी कृशकाया!